साधारण परिवार से महामहिम बने जस्टिस अब्दुल नज़ीर की क्यों तारीफ होनी चाहिए?

साधारण परिवार से महामहिम बने जस्टिस अब्दुल नज़ीर की क्यों तारीफ होनी चाहिए?

अगर मुद्दा नियुक्तियों का है तो क्या आलोचना उन ढांचों की भी नहीं होनी चाहिए जिन्होंने उसको लेकर नियम बनाए गए हैं. कई रिटायर्ड जजों को पहले भी राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जाता रहा है. पढ़ें सान्या तलवार का विश्लेषण.

किसी राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद153और155के तहत होती है. हाल ही मेंआंध्र प्रदेश के राज्यपाल के रूप में पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर के नाम पर राष्ट्रपति ने हरी झंडी दिखाई है.12फरवरी को भारत के राष्ट्रपति के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश राज्यपाल के रूप में नियुक्त करने की प्रक्रिया में कोई भी गड़बड़ी नहीं होने के बावजूद इसको लेकर विवाद हो रहा है.

विवादों को कुछ षडयंत्रकारी लोगों का एक विशेष गुट हवा दे रहा है. इस नियुक्ति की आलोचना बिल्कुल अनुचित है. यहां यह साफ करना जरूरी है कि विवाद सत्ता में मौजूद सरकार द्वारा की गई नियुक्ति को लेकर नहीं है बल्कि विवाद और आलोचना सीधे तौर पर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण से जुड़ी हुई है.

न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर की न्यायिक विरासत पर कोई विवाद नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश और अब एक राज्य के राज्यपाल के रूप में उनकी यात्रा उल्लेखनीय है,खासकर जब उनका प्रारंभिक जीवन उथल-पुथल भरा रहा और वे अपने परिवार के पहले वकील रहे. वैसे तो परिवार से किसी व्यक्ति का पहली बार सुप्रीमकोर्ट या हाईकोर्ट का जज बनना नयी बात नहीं है, मगर भारत में किसी पहली पीढ़ी के वकील का देश के शीर्ष अदालत तक पहुंचना निश्चित रूप से एक बड़ी उपलब्धि है.

खास कर तब जब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट जज बनने-बनाने में भाई-भतीजावाद और पारिवारिक एहसानों का बड़ा रोल होता है. न्यायमूर्ति नज़ीर ने केएस पुट्टास्वामी वाले ऐतिहासिक फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में बरकरार रखा और तीन तलाक मामले में असहमति जताई. दोनों निर्णय2017में दिये गए. तीन तलाक में उनकी असहमति ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में अदालतें निर्णय नहीं दे सकतीं. यह धर्म का एक अभिन्न अंग है. उनके मुताबिक, “धर्म आस्था का विषय है,तर्क का नहीं”.

2019मेंन्यायमूर्ति नज़ीर भी उस पांच-न्यायाधीशों की पीठ का हिस्सा थे जिसने सर्वसम्मति से कहा कि अयोध्या की पूरी2.77एकड़ भूमि राम मंदिर के निर्माण के लिए सौंपी जानी चाहिए. यही कारण है कि एक खास गुट “लोकतंत्र मर चुका है” का विधवा विलाप कर रहा है. रचनात्मक बातचीत के लिए हमें संविधान की संरचनात्मक मुद्दों पर बात करनी होगी जो कि संसदीय टाइप की कैबिनेट के पक्ष में है. बाकी सबको भारत सरकार अधिनियम 1935 पर छोड़ दिया गया है. मगर कुछ विपक्षी टूटे भोपूं की तरह बार-बार उंगली सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पर उठा रहे हैं. जाहिर हैकियह कोई नई बात नहीं है.

पूरे देश ने बीते हफ्ते संसद में अपशब्दों से भरे डिबेट के निम्न स्तर को देखा. टीएमसी की एक नेता ने सर्वोच्च न्यायालय के सबसे लंबे समय तक रहने वाले एक न्यायाधीश (अब सेवानिवृत्त) की राज्यपाल के रूप में नियुक्ति को “शर्मनाक” कहा सिर्फ इसलिए क्योंकि वह राम जन्मभूमि पर निर्णय देने वाली पीठ का हिस्सा थे. इस गुट पर से अतीत का भूत नहीं उतर रहा है. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चार साल पहले एक ऐतिहासिक फैसला दिया जिसने करोड़ों भारतीयों के विश्वास को बरकरार रखा. यह मामला कई सदियों से लटका पड़ा था और भ्रष्ट आक्रमणकारियों की काली करतूत थी. मगर एक खास षडयंत्रकारी गुट के लिए यह सबसे बड़ी आंख की किरकिरी है.

इन घटिया बयानों के बीच भारत का विकास निंदनीय शब्दों के जाल में खो जाता है. इसे विपक्षी षडयंत्रकारी तंत्र अक्सर “लोकतंत्र के सुरक्षा वाल्व” के रूप में प्रचारित करता है. यह गुट न केवल जनता को गलत जानकारी देता है बल्कि केवल वैसे ही मुद्दों को चुनता है जिनका भारत के भविष्य से कोई संबंध नहीं है. उदाहरण के लिए,केंद्र-राज्य संबंधों पर1983के सरकारिया आयोग की सिफारिशें और राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति में प्रस्तावित संशोधन पर न तो यह षडयंत्रकारी गुट, न ही भारत का विपक्ष कोई चर्चा करना चाहता है. जबकी आयोग ने एक समाधान तक पहुंचने वाला दृष्टिकोण अपनाया जिसमें उसकी कमियों को भी गिनाया गया.

दरअसल, भारत का संविधान इस तरह से तैयार किया गया जैसे कांग्रेस के अलावा कोई भी दूसरी पार्टी यहां पर सत्ता में आएगी ही नहीं. जब तक केंद्र और राज्यों में कांग्रेस सत्ता में बनी रही,तब तक तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा. यहां पर हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि भले ही मुद्दा राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति या संरचनात्कम कमियों में से एक हो सकता है, मगर यूनियन ऑफ इंडिया की अवधारणा में संघीय (फेडरल) और एकात्मक (युनिलेट्रल) दोनों ही सिद्धांतों का समावेश है. यह इस विचार का भी समर्थन करता है कि राष्ट्रीय हित को संघवाद के सामने प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

दिलचस्प बात यह है कि वह डॉ. बी आर अंबेडकर ही थे जिन्होंने संविधान के अनुच्छेद1में “यूनियन” के लिए “फेडरेशन” शब्द को रखा.21अगस्त, 1947को यूनियन पावर्स कमेटी की दूसरी रिपोर्ट में कहा गया, “अब जब भारत का विभाजन निश्चित है, एक कमजोर केंद्र सरकार देश में शांति सुनिश्चित करने, आम लोगों से संबंधित महत्वपूर्ण मामलों को आगे बढ़ाने में और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व करने में सहायक नहीं होगी”.

अगर मुद्दा नियुक्तियों का है तो क्या आलोचना उन ढांचों की भी नहीं होनी चाहिए जिन्होंने उसको लेकर नियम बनाए गए हैं. कई सेवानिवृत्त जजों को अतीत में भी तो राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया है.

यह बहस का विषय है कि क्या अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण से एक षडयंत्रकारी गुट के कलेजा पर सांप लोटता है. निश्चित रूप से एक संवैधानिक पद पर हुई नियुक्ति का गलत तरीके से विरोध किया जा रहा है. दुर्भाग्य से एक बार फिर से राम मंदिर मुद्दे को तुष्टिकरण वाली राजनीति और राजनीतिक एजेंडा चलाने के लिए आगे ले आया गया है.

यह बहस का विषय बना हुआ है कि क्या षडयंत्रकारी गुट का यह असफल प्रयास उन अनगिनत भारतीयों को निरुत्साहित करने के लिए तो नहीं है जो राम लला को उनका सही स्थान दिलाने के लिए लड़े और राम जन्मभूमि केस में सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा किया.

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