डेथ और ब्लैक वारंट… एक दस्तावेज के दो नाम…क्या है इसकी पूरी कहानी, फांसी फरमान पर किसके दस्तखत?
एक ही दस्तावेज के दो अलग नाम क्यों है. आइए जानते हैं इन वारंट को लेकर कानूनी दस्तावेजों में मौजूद 'काला-सफेद सच'.
लाल किले पर अब से करीब 23 साल पहले हुए आतंकवादी हमले का जिन्न सोमवार को फिर सिर उठाने लगा, जब पता चला कि उस हमले के मास्टरमाइंड लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी, मोहम्मद आरिफ उर्फ मोहम्मद अशफाक का ‘डेथ वारंट’ हासिल करने को तिहाड़ जेल प्रशासन संबंधित कोर्ट की देहरी पहुंचा है. इस खबर के साथ ही फिर चर्चा शुरू हो गई है कि क्या ‘डेथ वारंट’ और ‘ब्लैक वारंट’ एक ही कानूनी दस्तावेज है या फिर अलग-अलग?
आइए जानते हैं इन वारंट को लेकर कानूनी दस्तावेजों में मौजूद ‘काला-सफेद सच’. कहानी के शुरुआत में ही बता देना जरूरी है कि, हिंदुस्तानी कानून के किसी भी दस्तावेज में कहीं भी ‘डेथ वारंट’ और ‘ब्लैक वारंट’ तो लिखा ही नहीं है.
डेथ वारंट या ब्लैक वारंट आए कहां से?
ऐसे में अब यह सवाल जेहन में आना लाजिमी है कि आखिर यह डेथ वारंट या ब्लैक वारंट निकले कहां से कैसे और कब? दरअसल, यह सब पुलिसिया, जेल और कोर्ट कचहरी की आम बोलचाल की भाषा के शब्दकोष से तैयार अल्फाज हैं. जो उस कदर के प्रचलित हो चुके हैं कि अब इन्हें डेथ और ब्लैक वारंट के नाम से ही हर कोई जानता पहचानता और समझता है. भले ही फांसी के लिए अंतिम दस्तावेज माने जाने वाले आदेश को ऊपर, कहीं भी इन दोनों ही शब्दों का कभी कोई भी उल्लेख मौजूद ही न मिलता हो.
कह सकते हैं कि भारत से विशाल लोकतांत्रिक देश में ब्लैक या फिर डेथ वारंट, की बारीकी भले ही कोई अधिकांश लोग न जानते हों. बहुतायत ने तो इस अहम कानूनी दस्तावेज के जिंदगी में एक बार भी दर्शन तक न किए हों, मगर ब्लैक और डेथ वारंट ऐसे लोग भी समझ जाते हैं, क्योंकि वे इस दस्तावेज को अपने हिसाब से सिर्फ और सिर्फ, किसी सजायाफ्ता मुजरिम की मौत का अंतिम ‘कानूनी दस्तावेज’ मानते-जानते हैं.
‘ब्लैक-वारंट’ जैसी चर्चित किताब के लेखक और तिहाड़ जेल के पूर्व कानूनी सलाहकार सुनील गुप्ता ने, टीवी9 भारतवर्ष से विशेष बातचीत में कहा, “डेथ और ब्लैक वारंट एक ही कानून दस्तावेज के दो अलग-अलग नाम हैं. दोनों की अहमियत और काम कानून की नजर में बराबर हैं. आमजन को अपने जेहन से यह निकालना होगा कि, डेथ और ब्लैक वारंट दो अलग अलग दस्तावेज हैं.” टीवी9 भारतवर्ष के पाठकों की जिज्ञासा को और भी ज्यादा तह तक में जाकर शांत करने की उम्मीद में सुनील गुप्ता कहते हैं, सच पूछिए तो डेथ वारंट ही सबकुछ है. न कि ब्लैक वारंट नाम का कोई कानूनी दस्तावेज कहीं हिंदुस्तानी कोर्ट कचहरी में मौजूद है.
दो अलग-अलग नाम क्यों?
ऐसे में किसी के भी जेहन में सवाल कौंधना लाजिमी है कि अगर, दोनों अलग-अलग नहीं है या दोनों की अहमियत और काम अलग-अलग नहीं हैं तो फिर नाम दो अलग अलग क्यों? पूछने पर तिहाड़ जेल के पूर्व कानून अधिकारी कहते हैं, “दरअसल ब्लैक वारंट कुछ अलग या विशेष किस्म का कोई मौत का फरमान या फिर कानूनी दस्तावेज कतई नहीं है. हां ये सही है कि ब्लैक वारंट अगर कोई कहता है तो वो भी अनुचित नहीं है. हां, डेथ वारंट को तो ‘ब्लैक वारंट’ आम बोलचाल की भाषा में कहा जा सकता है, मगर ब्लैक वारंट को डेथ वारंट कहकर नहीं बुलाया जा सकता है. क्योंकि असल में कानूनी दस्तावेज के रूप में तैयार तो डेथ वारंट ही जारी होता है. न कि ब्लैक वारंट.
चूंकि डेथ वारंट ही हिंदुस्तानी कानून के मुताबिक, मौत की सजा पाए किसी भी मुजरिम को फांसी पर लटकाने का अंतिम कानूनी दस्तावेज है, इसलिए उसे डेथ वारंट कहना ही ज्यादा उचित है. न कि ब्लैक वारंट. तिहाड़ जेल की 38-40 साल की नौकरी में कई सजायाफ्ता मुजरिमों के डेथ वारंट जारी करवा चुके सुनील गुप्ता टीवी9 भारतवर्ष के एक सवाल के जवाब में कहते हैं, “किसी सजायाफ्ता मुजरिम को फांसी पर लटकाए जाने के इस अंतिम और इकलौते फरमान को ब्लैक वारंट जो लोग कहते हैं तो गलत वे भी नहीं है. दरअसल इसकी पुष्टि में मैं बस यही कह सकता हूं कि, मुजरिम को मौत की सजा मुकर्रर करने वाला जज, जिस कागज पर अदालत में डेथ-वारंट बनाता है. उस कागज के चारों ओर मौजूद खाली हासिये या कह सकते हैं कि चारों कोने, काले-रंग के होते हैं. इसके चलते भी कालांतर में डेथ वारंट को ही ब्लैक वारंट कोर्ट कचहरी की आम भाषा में लोग बोलने लगे थे.”
कैसा होता है ये डेथ वारंट?
अब सबके बाद सवाल जेहन में आता है कि डेथ या ब्लैक वारंट होता कैसा है? कैसे बनता है? मौत का अंतिम फरमान होने के चलते डेथ-वारंट की भाषा रंग-रूप क्या है. क्या ये अन्य तमाम कानूनी दस्तावेजों से देखने में कुछ अलग या डरावने किस्म के होते हैं? क्या डेथ वारंट को अलग से पहचान पाना संभव है? दरअसल डेथ वारंट एक विशेष किस्म के कागज पर ही लिखा जाता है. उस कागज पर जिसके बस हासिये (कागज के चारों कोने और साइड में छूटी हुई जगह) का रंग जरूर काला होता है. इन तमाम जानकारियों के बाद जेहन में सवाल उठना लाजिमी है कि, डेथ-ब्लैक वारंट का आखिर मजमून लिखता कौन है और मजमून होता क्या है?
डेथ वारंट का मजमून हमेशा सजा सुनाने वाला जज (ट्रायल कोर्ट जहां से मुलजिम को ‘मुजरिम’ करार देकर सजा-ए मौत- पहली बार मुकर्रर होती है) ही खुद लिखता है. कई साल पहले तक जज अपने कलम (हैंड राइटिंग) में मौत का ये फरमान यानि डेथ वारंट लिखते थे. आधुनिक तकनीकी युग में वक्त के साथ, हिंदुस्तानी अदालतों में रोजमर्रा के कामकाज का तौर-तरीका भी बदल गया है. लिहाजा अब पहले से तयशुदा एक मैटर कागज पर (डेथ या ब्लैक वारंट पर) टाइप कर दिया जाता है. उसके नीचे सजा सुनाने वाले जज अपने हस्ताक्षर कर देते समय मुहर और तारीख और समय लिख देता है.
डेथ वारंट में कब लिखी जाती है समय, दिन और तारीख?
बात जब डेथ या फिर ब्लैक वारंट जारी होने की हो, तो उसे जारी करने के वक्त यानि समय-दिन-तारीख का भी सवाल जेहन में आना लाजिमी है. इसके लिए सबसे पहले ट्रायल कोर्ट (सेशन कोर्ट) दोष-सिद्ध होने पर मुलजिम को मुजरिम करार देता है. फिर मुजरिम को सजा सुनाई जाती है. सजा अगर फांसी की है तो फिर ये मामला हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, राज्यपाल, राष्ट्रपति की देहरी तक पहुंचता है. यह काम सजायाफ्ता मुजरिम की ओर से अपनी जिंदगी बचाने के लिए किया जाता है.
भारत के राष्ट्रपति जब दया-याचिका खारिज कर देते हैं, तब जिस जेल में मौत की सजा पाए मुजरिम को बंद करके रखा गया है, उस जेल का जेल सुपरिटेंडेंट राष्ट्रपति के यहां से खारिज हुई दया याचिका संबंधी लिखित सूचना लेकर, ट्रायल कोर्ट यानि जिस कोर्ट ने मुलजिम को मुजरिम करार देकर सबसे पहले सजा-ए-मौत मुकर्रर की होती है वहां पहुंचता है. जैसा की अब इस वक्त तिहाड़ जेल के जेलर ने लाल किला कांड के मुख्य षडयंत्रकारी मोहम्मद अशफाक उर्फ मोहम्मद आरिफ के मामले में कदम उठाया है संबंधित कोर्ट में उसका डेथ वारंट जारी करने की अर्जी दाखिल करके.
जेल सुपरिटेंडेंट द्वारा पेश इसी अर्जी पर संबंधित कोर्ट के जज अपने स्तर से पता करवाते हैं कि, क्या वास्तव में मुजरिम की दया याचिका हर देहरी से खारिज हो चुकी है? इसके साथ ही सभी दया याचिकाएं खारिज होने संबंधी आदेशों को डेथ वारंट जारी करने से पहले, ट्रायल कोर्ट जज (मौत की सजा सुनाने वाला जज) फाइल पर ON RECORD लाता है, . उसके बाद वो मुजरिम का डेथ वारंट (ब्लैक वारंट) जारी करता है. ये डेथ वारंट सीलबंद लिफाफे में संबंधित कोर्ट द्वारा जेल सुपरिंटेंडेंट के हवाले किया जाता है. जज द्वारा जारी डेथ वारंट उस हद तक का अति-गोपनीय होता है कि जिसमें लिखा मजमून (फांसी लगाने वाली जेल, जगह, तारीख स्थान आदि), डेथ वारंट लिखने वाले जज के अलावा शायद ही किसी दूसरे को पता होता है. जज ने मुजरिम को फांसी का वक्त तारीख स्थान जेल क्या और कहां तय किया है? इन सवालों का जवाब भी डेथ वारंट पढ़ने के बाद ही उस जेल सुपरिंटेंडेंट को भी पता चलता है जो, डेथ वारंट जारी कराने की अर्जी कोर्ट में लेकर पहुंचता है.
इस बारे में टीवी9 भारतवर्ष ने सोमवार को बात की लाल किला हमले के जांच अधिकारी रहे, दिल्ली पुलिस स्पेशल सेलके रिटायर्ड इंस्पेक्टर सुरेंद्र संड से. उन्होंने कहा, “मेरे सामने डेथ वारंट और ब्लैक वारंट का कोई झंझट शुरु से ही नहीं था. भारत सरकार ने जब मुझे विशेष विमान से इसी आतंकवादी मोहम्मद अशफाक उर्फ मोहम्मद आरिफ को लेकर कश्मीर भेजा तो, वहां हमारे ऊपर बमों से हमला करवा डाला गया. मैं और यही आतंकवादी अशफाक उस हमले में बाल-बाल बचे. मुझे जान से मार डालने की धमकियां भी इसी आफताब के आतंकवादी संगठन के आकाओं से मिलीं. मैं मगर जानता था कि जिस तरह की तफ्तीश में कर रहा हूं, मेरी वो तफ्तीश देर-सवेर ही क्यों न सही मगर, इस पाकिस्तानी आतंकवादी मोहम्मद आफताब को एक दिन फांसी के फंदे पर जरूर चढ़वा कर मानेगी.”