40 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने शख्स को किया बरी, जानें कानूनी पेचीदगी में कैसे तबाह हुई जिंदगी?
सुप्रीम कोर्ट ने निखिल चंद्र मंडल नाम के एक शख्स को पत्नी की हत्या के आरोप से 40 साल बाद बरी किया है. ये मर्डर 11 मार्च 1983 को पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में हुआ था. मंडल को पुलिस ने अपनी पत्नी के हत्या के आरोप में इसलिए गिरफ्तार किया, क्योंकि उसने गांव के अपने तीन साथियों के सामने पत्नी की हत्या की बात कबूली थी.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने निखिल चंद्र मंडल नाम के एक शख्स को पत्नी की हत्या के आरोप से 40 साल बाद बरी किया है. निखिल को 40 साल पहले पश्चिम बंगाल पुलिस ने हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया था. इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने उसे साल 1987 में बेगुनाह मानते हुए रिहा कर दिया था. लेकिन साल 2008 में हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया और उसे उम्रकैद की सजा सुनाई.
मंडल ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ देश की सबसे बड़ी अदालत में गुहार लगाई. सुप्रीम कोर्ट ने उसे सभी आरोपों से बरी करते हुए कहा कि सिर्फ इकबालिया बयान यानी एक्स्ट्रा ज्यूडिशल कन्फेशन पर किसी को दोषसिद्धि को बरकरार नहीं रखा जा सकता क्योंकि यह ठोस सबूत नहीं है. पिछले 40 सालों में मंडल की जिंदगी कानूनी पेचीदगी में तबाह हो गई और न्याय पाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी. अब 40 साल बाद उसे सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिला है.
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ग्रामीणों के सामने कबूला गुनाह
दरअसल ये मर्डर 11 मार्च 1983 को पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में हुआ था. मंडल को पुलिस ने अपनी पत्नी के हत्या के आरोप में इसलिए गिरफ्तार किया, क्योंकि उसने गांव के अपने तीन साथियों के सामने पत्नी की हत्या की बात कबूली थी. लेकिन 1987 में पर्याप्त सबूत ना होने की वजह से ट्रायल कोर्ट ने उसे रिहा कर दिया. इसके 22 बाद कलकत्ता हाईकोर्ट की एक बेंच ने निखिल मंडल को साल 2008 में हत्या का दोषी मानते हुए आजावीन कारावास की सजा सुनाई.
साल 2009 में खटखटाया सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा
साल 2009 में मंडल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. उसकी अपील जज बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति संजय करोल की बेंच के सामने 14 साल तक लंबित रही. बेंच ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए मंडल को बरी कर दिया. जस्टिस गवई ने अपने फैसले में लिखा कि यह पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित मामला है. जस्टिस गवई और करोल ने सबूत के तौर पर गवाहों के बयानों को भी विरोधाभासी माना. बेंच ने कहा, “यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि शक कितना भी गहरा और मजबूत क्यों न हो, लेकिन यह सबूत की जगह नहीं ले सकता. जहां एक असाधारण स्वीकारोक्ति संदिग्ध परिस्थितियों से घिरी होती है, उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है और वह अपना महत्व खो देती है.”