त्रिपुरा: सीएम चेहरे के रूप में आदिवासी नेता पर कांग्रेस-वाम की सहमति से बीजेपी को कैसे लगेगा झटका, समझिए

त्रिपुरा: सीएम चेहरे के रूप में आदिवासी नेता पर कांग्रेस-वाम की सहमति से बीजेपी को कैसे लगेगा झटका, समझिए

सीपीएम नेता और आदिवासी दिग्गज जितेंद्र चौधरी को गठबंधन के सीएम के चेहरे के रूप में कांग्रेस-वाम की सहमति देने से बीजेपी के लिए संकट खड़ा हो सकता है.

ये है कहानी

60 सदस्यीय त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के लिए मंगलवार को चुनाव प्रचार समाप्त हो गया. अब यह स्पष्ट हो गया है कि मुकाबला काफी हद तक बीजेपी और कांग्रेस-वाम गठबंधन के बीच है. हालांकि, नवोदित पार्टी टिपरा मोथा आदिवासी बहुल कुछ सीटों पर जीत हासिल कर सकती है. कांग्रेस-वाम गठबंधन के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित बीजेपी के स्टार प्रचारकों के हमलों से यह भी संकेत मिलता है कि बीजेपी को राज्य में सत्ता बनाए रखने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.

अपनी रैलियों के लिए जनता की प्रतिक्रिया से उत्साहित, वाम मोर्चा और कांग्रेस ने अनुभवी सीपीएम नेता और आदिवासी दिग्गज जितेंद्र चौधरी को गठबंधन के सीएम के चेहरे के रूप में सहमति दे दी है.

पटकथा

कांग्रेस नेता अजोय कुमार, जो राज्य के प्रभारी हैं, ने राज्य कांग्रेस प्रमुख बिरजीत सिन्हा के निर्वाचन क्षेत्र में एक रैली को संबोधित करते हुए संभावित सीएम चेहरे के रूप में चौधरी का नाम सामने रखा. हालांकि, राज्य में लगभग 65 प्रतिशत बंगाली मतदाताओं के दूर होने के डर से इसकी औपचारिक घोषणा नहीं हो सकी. हालांकि, सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि अगर चुनाव में गठबंधन बहुमत हासिल करता है तो विधायक ही अगले सीएम का फैसला करेंगे. जितेंद्र चौधरी सीपीएम के प्रदेश सचिव हैं और सबरूम की आरक्षित सीट से चुनाव लड़ रहे हैं.

नवगठित तिपराहा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन (टिपरा मोथा) के उद्भव ने गठबंधन को एक आदिवासी चेहरे के लिए मजबूर कर दिया. इसीलिए माणिक सरकार ने चुनाव से हटने का फैसला किया, जबकि वह 20 साल से मुख्यमंत्री रहे हैं. 25 साल में पहली बार त्रिपुरा में वाम मोर्चा का चेहरा माणिक सरकार नहीं बल्कि चौधरी हैं, जो कई बार राज्य मंत्री रहे हैं और लोकसभा के पूर्व सांसद भी हैं.

कृपया और अधिक समझाएं

राज्य के आदिवासी इलाके लंबे समय से वामपंथियों के गढ़ रहे हैं. लेकिन 2018 में ऐसा नहीं रहा, जब बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन ने एसटी के लिए आरक्षित 20 में से 18 सीटों पर जीत हासिल की. इस बार बीजेपी को हराने के लिए सीपीएम के लिए खोए हुए जनजातीय आधार को फिर से हासिल करना महत्वपूर्ण है. वाम मोर्चा 43 सीटों पर लड़ रहा है और उनका सीएम चेहरा जितेंद्र चौधरी हैं. सीट बंटवारे की व्यवस्था के तहत, कांग्रेस 13 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और भाकपा, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने एक-एक सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं.

चौधरी ने विश्वास जताया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और अन्य नेताओं के प्रचार के बावजूद, सत्तारूढ़ बीजेपी त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में एक अंक में सिमट कर रह जाएगी. बीजेपी को घबराहट हो रही है क्योंकि वाम-कांग्रेस गठबंधन अजेय दिख रहा है. टिपरा मोथा के उभरने से बीजेपी की मुश्किलें और बढ़ गई हैं.

बीजेपी “डबल इंजन सरकार” होने के फायदों पर जोर दे रही है, लेकिन जमीन पर इसका असर नहीं दिखाई दे रहा है. इसके शासन के प्रति असंतोष की फुसफुसाहट सुनाई दे रही है. लोग बिप्लब देब के कार्यकाल को कटुता के साथ याद कर रहे हैं. हालांकि, मई 2022 को मानिक साहा को सीएम बनाया गया था.

यह इतना अहम क्यों है

त्रिपुरा सातवां ऐसा राज्य या केंद्र शासित प्रदेश है जहां पिछले कुछ सालों में कांग्रेस और वाम दलों ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया है. अन्य छह हैं: पश्चिम बंगाल: 2016 और 2021, बिहार: 2020, असम: 2021, तमिलनाडु: 2021, पुडुचेरी: 2021 और तेलंगाना: 2018 (केवल सीपीआई).

वामपंथियों ने भी महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर जैसे कई स्थानों पर कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा का समर्थन किया, हालांकि उन्होंने केरल में इसका समर्थन नहीं किया. त्रिपुरा में गठबंधन दोनों के बीच बढ़ते घनिष्ठ संबंधों का एक और सबूत है. यह सिर्फ बीजेपी का विरोध नहीं है, बल्कि तृणमूल कांग्रेस का भी है, जिसने दोनों पार्टियों को एक साथ ला दिया है.

मेघालय और त्रिपुरा में टीएमसी के प्रचार का उद्देश्य कांग्रेस की जगह लेना है. कांग्रेस के दो पूर्व नेता, मेघालय में मुकुल संगमा और त्रिपुरा में सुष्मिता देब इसके लिए महत्वपूर्ण चेहरे हैं. हालांकि, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक के दौरे के बावजूद टीएमसी चुनाव प्रचार में ज्यादा हलचल नहीं मचा पाई है. गोवा की तरह, टीएमसी त्रिपुरा में भी खारिज हो सकती है.

2024 के लोकसभा चुनाव से पहले टीएमसी की राष्ट्रीय चुनौती को नाकाम करने के लिए कांग्रेस के लिए त्रिपुरा महत्वपूर्ण है. राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो कांग्रेस 13 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए इसलिए राजी हुई ताकि वह त्रिपुरा में बीजेपी और टीएमसी का सफाया कर सके. त्रिपुरा में वामपंथी और कांग्रेस पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी रहे हैं. 1972 और 2013 के बीच चार दशकों तक राज्य के गैर-आदिवासी क्षेत्रों में इन दोनों के बीच द्विध्रुवीय लड़ाई होती रही. त्रिपुरा में अपने वाम-विरोधी इतिहास को देखते हुए, यह देखा जाना बाकी है कि क्या कांग्रेस वामपंथियों को वोट स्थानांतरित कर पाती या नहीं.

कहानी में मोड़

पारंपरिक कांग्रेस मतदाता, जिनमें से कई ने 2018 में बीजेपी का समर्थन किया था, आसानी से सीपीएम को वोट नहीं देंगे, भले ही वे बीजेपी के प्रदर्शन से असंतुष्ट हों. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस की 13 सीटों में से अधिकांश पर वामपंथी वोट कांग्रेस की ओर जाते दिख रहे हैं क्योंकि वामपंथी समर्थक बीजेपी को हराने के लिए बेताब हैं. यदि कांग्रेस और वाम, विपक्षी वोटों को मजबूत करते हैं, खासकर बंगाली भाषी क्षेत्रों में. और टिपरा मोथा आदिवासी क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन करती है तो यह बीजेपी के लिए गंभीर संकट हो सकता है.

हालांकि अभी भी विपक्ष के लिए यह एक कठिन कार्य है. बीजेपी के पास संसाधनों के साथ-साथ केंद्र और राज्य दोनों में सत्ता में होने का लाभ है. 2018 के त्रिपुरा चुनावों में लेफ्ट को 42.22 फीसदी वोट मिले थे, जबकि बीजेपी को 43.59 फीसदी वोट मिले थे. कई सीटों पर जीत का अंतर बेहद कम रहा था. यहीं पर गठबंधन कई गणनाओं को उलट सकता है.

(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं. इस लेख में दिए सत,, गए विचार और तथ्य News9 के स्टैंड का प्रतिनिधित्व नहीं करते.)