अमेठी की जीत से प्रियंका गांधी ने परिवार और पार्टी दोनों को दिया मुस्कुराने का मौका

अमेठी की जीत से प्रियंका गांधी ने परिवार और पार्टी दोनों को दिया मुस्कुराने का मौका

अमेठी सीट को लेकर गांधी परिवार ने बेहद शानदार रणनीति बनाई. उन्होंने अमेठी की उम्मीदवारी को लेकर सेफ गेम खेला. नामांकन के आखिरी दिन राहुल के लिए अपेक्षाकृत मजबूत रायबरेली सीट चुनी गई. अमेठी में अपने प्रतिनिधि किशोरी लाल शर्मा को आगे कर दिया और फिर उन्हें जिताने की जिम्मेदारी प्रियंका ने अपने कंधों पर ले ली.

पराजय की पीड़ा गहरी थी. प्रियंका गांधी वाड्रा ने परिवार और पार्टी दोनों को मुस्कुराने का मौका दे दिया. 2019 में राहुल गांधी की अमेठी हार का संदेश गहरा था. प्रियंका के 2024 में चुकता हिसाब के निहितार्थ भी गहरे हैं. मैदान में किशोरी लाल शर्मा थे. जीत का औपचारिक प्रमाणपत्र भी उन्हीं का बनना था. लेकिन पूरे चुनावी परिदृश्य का फोकस प्रियंका पर था. किशोरी हारते तो ठीकरा प्रियंका पर फूटता. जीते हैं तो क्रेडिट भी प्रियंका को ही मिलेगा.

उधर रायबरेली में राहुल गांधी की धमाकेदार जीत में भी प्रियंका की बड़ी भूमिका रही. अमेठी की वापसी और रायबरेली में परिवार के पुराने आभामंडल को कायम कर प्रियंका ने पार्टी के कैडर में जान फूंक दी है.

स्मृति में नहीं रही विजेता की विनम्रता

स्मृति ईरानी ने साल 2014 में पहली बार अमेठी में दस्तक दी थी. तब राहुल से मुकाबले में हार गई थीं. फिर भी मोदी मंत्रिमंडल में उन्हें जगह मिली. पार्टी ने उन्हें वहां टिका दिया. राहुल क्षेत्र से उदासीन थे. अगले पांच साल वहां स्मृति की मेहनत ने 2019 की उनकी जीत की पटकथा लिख दी थी. उस चुनाव में प्रियंका भी भाई राहुल की पराजय नहीं रोक सकी थीं. इसके बाद राहुल अमेठी का रास्ता लगभग भूल गए.

लेकिन स्मृति, गांधी परिवार को लगातार चुनौती देती रहीं. क्षेत्र के लिए हर छोटे- बड़े काम या कमी के लिए सदन से सड़क तक गांधी परिवार से चालीस वर्षों के जुड़ाव का वह हिसाब मांगती रहीं. विजेता से विनम्रता की उम्मीद की जाती है. इस मोर्चे पर वे चूक गईं. गांधी परिवार पर लगातार हमले करके स्मृति ने खुद की छवि को खासा नुकसान पहुंचा लिया.

उम्मीदवारी की रणनीति से कांग्रेस को लाभ

फिर भी अमेठी गांधी परिवार के लिए आसान नहीं रह गई थी. 2019 की हार के बाद से वहां से परिवार की दूरी का वोटरों के बीच जवाब देना आसान नहीं था. सीधे अमेठी में लड़ने के अपने खतरे थे. उसे छोड़ना भी आसान नहीं था. यहां गांधी परिवार की रणनीति काम आई. आखिर तक स्मृति रही हों या भाजपा अथवा मीडिया. सभी वहां की उम्मीदवारी को लेकर कयास ही लगाते रहे. वहां से राहुल लड़ेंगे या प्रियंका? सोनिया ने रायबरेली को छोड़कर इन अटकलों को और ईंधन दिया. रायबरेली के लोगों को एक भावुक चिट्ठी के जरिए सोनिया ने यह भी बता दिया था कि वे परिवार के किसी सदस्य को उन्हें सौंपेगी.

किशोरी शर्मा के जरिए सेफ गेम

गांधी परिवार ने अमेठी की उम्मीदवारी को लेकर सेफ गेम खेला. नामांकन के आखिरी दिन राहुल के लिए अपेक्षाकृत मजबूत रायबरेली सीट चुनी गई. अमेठी में अपने प्रतिनिधि किशोरी लाल शर्मा को आगे कर दिया और फिर उन्हें जिताने की जिम्मेदारी प्रियंका ने अपने कंधों पर ले ली. राहुल लड़ते तो प्रतिद्वंद्वी खेमा पांच साल कहां थे, के सुर तेज करता. सवाल प्रियंका से भी हो सकते थे. लेकिन स्मृति के पांच साल से चल रहे आक्रामक अभियान ने उलटे गांधी परिवार के लिए सहानुभूति का माहौल पैदा कर दिया.

असलियत में स्मृति की अब सवाल करने की नहीं बल्कि जवाब देने की बारी थी. वे अपने काम गिना सकती थीं. उन्होंने खुद क्या किया, इसे बताने से ज्यादा गांधी परिवार चालीस साल में अमेठी में क्या नहीं कर पाया, पर उनका ज्यादा जोर था. इस नकारात्मक मुहिम ने उन्हें नुकसान पहुंचाया.

वोटरों के बीच प्रियंका का चेहरा

प्रियंका अपने परिवार और पार्टी की सबसे सफल कैंपेनर हैं. वे भाई राहुल की तर्ज पर आवेश में नहीं बोलतीं. प्रतिद्वंद्वी का नाम लिए बिना सलीके से जवाब भी देती हैं और संयमित प्रहार भी करती हैं. एक बार फिर उन्होंने अमेठी, रायबरेली में इसे दोहराया. स्मृति के मुकाबले उनका प्रत्याशी लो प्रोफाइल था. लेकिन वोटरों के बीच प्रियंका का चेहरा और उनके बोल थे. वे वोट किशोरी लाल शर्मा के लिए जुटा रही थीं लेकिन अमेठी से अपने परिवार के रिश्तों की याद दिला रही थीं.

लंबे दौर तक ये इलाका गांधी परिवार से जुड़ाव और उसके जरिए अपनी पहचान के मोहपाश में रहा है. 2019 में बंधन ढीले पड़े. भावनाओं का ज्वार उतरता नजर आया था. 2024 में प्रियंका ने उसे एक बार फिर नया उभार दे दिया. उनकी बेहतर संवाद शैली और लोगों को जोड़ने के कौशल ने किशोरी क्यों और राहुल या खुद क्यों नहीं, जैसे सवालों को पीछे कर दिया.

कामयाबी की अनेक वजहें

स्मृति के मुकाबले किशोरी लाल शर्मा को अमेठी ने बड़े फासले से क्यों चुना, इसकी वजहों की फेहरिस्त है. सपा पहले भी गांधी परिवार के लिए अमेठी , रायबरेली छोड़ती रही है. इस बार वह कांग्रेस के गठबंधन में थी और उसके कार्यकर्ताओं ने सहयोगी पार्टी के उम्मीदवार के लिए जमकर मेहनत की. क्यों ? बड़ी वजह थी कि बीजेपी ने ऊंचाहार (रायबरेली) के सपा विधायक मनोज पांडे, गौरीगंज के राकेश प्रताप सिंह और अमेठी की महाराजी प्रजापति को अपने पाले में कर लिया था. सपा के वफादार कैडर को यह नागवार गुजरा.

बागी विधायकों को उनकी हैसियत बताने के लिए अखिलेश यादव ने अमेठी, रायबरेली में राहुल गांधी के साथ साझा सभाएं कर अपने कार्यकर्ताओं को इसके लिए प्रेरित किया. प्रचार में संविधान बचाने, आरक्षण पर खतरा, बेरोजगारी और महंगाई जैसे तमाम सवाल थे. प्रियंका ने इन सबको संजोया और वोटरों को अपने प्रत्याशियों की ओर मोड़ दिया.

असंतुष्ट भाजपाई; विपक्ष के लिए वरदान

स्मृति पिछले 10 साल से अमेठी में सक्रिय रहीं. हारने के बाद के पांच साल और फिर जीत के बाद के पांच साल. वहां उन्होंने काफी काम किया. गांव – गांव पहुंची. अपना घर भी बनाया. लेकिन इस बीच उन्होंने स्थानीय स्तर पर पार्टी के अनेक नेताओं को नाराज कर लिया. वर्कर और आम लोगों के लिए उनसे मुलाकात आसान नहीं रही. संघ के कार्यकर्ता उनसे उदासीन हो गए. जो काम विपक्षियों को करना था, वो उनकी पार्टी के लोगों ने किया. उनके गुरूर की चर्चा चारों ओर छाई रही.

प्रियंका ने स्मृति का नाम नहीं लिया. उन पर निजी प्रहार नहीं किए. यह काम असंतुष्ट भाजपाई कर रहे थे. ऐसी चर्चाओं को पंखों की जरूरत नहीं होती. स्मृति का नुकसान बढ़ता गया. प्रियंका के लिए रास्ता आसान होता गया.

गांधी परिवार से मिली पहचान रायबरेली-अमेठी पर हावी

2019 की हार अमेठी का संदेश था कि सिर्फ बड़े नाम काफी नहीं. रायबरेली में सोनिया की लंबी गैरहाजिरी के बाद चर्चा शुरू हो गई थी कि रायबरेली भी अमेठी के रास्ते जा सकती है. लेकिन 2024 आने तक अमेठी फिर गांधी परिवार के कारण अपनी पहचान को याद करने लगी. सोनिया के चुनावी राजनीति के संन्यास की खबर के साथ ही रायबरेली चौकन्नी हो गई. प्रियंका ने एक बार फिर अमेठी – रायबरेली के लोगों की भावनाओं को थपकी दी. रायबरेली में उनका काम और आसान था. वहां राहुल मैदान में थे. सोनिया ने वहां पहुंच परिवार के एक सदी पुराने रिश्तों की याद दिलाई.

भावनाओं की लहर उठी. सपा का मजबूत साथ मिला. सरकार की विफलताओं ने अपना असर दिखाया. राहुल ने लगभग चार लाख के लंबे अंतर से जीत दर्ज कर परिवार के पुराने किले को और मजबूत कर दिया. प्रियंका को अमेठी में भाई राहुल की पिछली हार का हिसाब चुकता करना था. इसके लिए उन्हें राहुल को फिर से मैदान में लाना जरूरी नहीं लगा. परिवार के एक भरोसेमंद के जरिए इसे पूरा कर उन्होंने प्रतिद्वंद्वी को उसकी सीमाएं बता दीं .