हमले, विध्वंस और लूट, फिर भी जलते रहे आस्था के दीप… कहानी सोमनाथ मंदिर की
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सोमनाथ मंदिर हिंदू समाज के मान-सम्मान-पहचान और भारतीय संस्कृति के गौरव का प्रतीक रहा है. जब हिंदू शासक ताकतवर रहे तो इसका उत्थान और वैभव वृद्धि हुई. जब कमजोर पड़े तो इस पर प्रहार और विध्वंस हुआ. विध्वसंकों ने सिर्फ धन-संपदा के लिए मंदिर को नहीं लूटा, विध्वंस के जरिए उन्होंने हिंदू आस्था और संस्कृति का मान-मर्दन किया.
सोमनाथ मंदिर पर महमूद गजनवी का 1026 का पहला हमला सिर्फ हिंदुओं की आस्था पर हमला नहीं था बल्कि भारत पर मुस्लिम शासकों की आमद का संदेश था. आखिरी बार 1706 में औरंगजेब ने इस मंदिर को पूरी तौर पर ध्वस्त कराया. लगभग सात सौ साल के बीच मंदिर 17 बार तोड़ा गया. हर हमले ने मुस्लिम शासकों की देश पर अपनी फौलादी पकड़ का सबूत देते हुए बताया कि बहुसंख्यक हिंदू आबादी को पूजा-पाठ और अपने मंदिरों की रक्षा की भी आजादी नहीं है. मुगलों के पतन के बाद देश अंग्रेजों के अधीन था. उनके निशाने पर सत्ता में वापसी के सपने संजोए मुस्लिम शासक थे. 1842 में अफगानिस्तान पर ब्रिटिश सेनाओं ने चढ़ाई की. गवर्नर जनरल लार्ड एलेनबर्ग ने सेना को हुक्म दिया कि वहां मोहम्मद गजनवी की मजार पर लगे सोमनाथ मंदिर से लूटे चंदन के द्वार वापस लाएं. देश की स्वतंत्रता के बाद सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण सरदार पटेल की प्राथमिकताओं में था. दूसरी ओर सेक्युलर पंडित नेहरू के अपने एतराज थे. इसी सवाल पर राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से उनका टकराव भी हुआ. 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की अयोध्या रथ यात्रा का प्रस्थान बिंदु सोमनाथ मंदिर बना. इस यात्रा ने आडवाणी और भाजपा की राजनीति को नए आयाम दिए.
हिंदुओं के मान-सम्मान का प्रतीक
सोमनाथ मंदिर हिंदू समाज के मान-सम्मान-पहचान और भारतीय संस्कृति के गौरव का प्रतीक रहा है. जब हिंदू शासक ताकतवर रहे तो इसका उत्थान और वैभव वृद्धि हुई. जब कमजोर पड़े तो इस पर प्रहार और विध्वंस हुआ. विध्वसंकों ने सिर्फ धन-संपदा के लिए मंदिर को नहीं लूटा, विध्वंस के जरिए उन्होंने हिंदू आस्था और संस्कृति का मान-मर्दन किया. इस्लाम का प्रचार-प्रसार भी उनका उद्देश्य था. मुस्लिम आक्रांता और शासक बदलते रहे लेकिन हिंदुओं का यह पवित्र प्रतीक एक के बाद दूसरे आततायी के निशाने पर रहा. बार-बार के हमलों और विध्वंस के बाद भी यहां भक्ति और आस्था के दीप जलते रहे. किसी न किसी स्तर पर पुनर्निर्माण की कोशिशें भी जारी रहीं. 1706 का आखिरी हमला औरंगजेब का था, जिसने इसे नेस्तनाबूत करने का फरमान किया. संयोग से उसी के बाद मुगल वंश के पतन का सिलसिला शुरू हुआ.
ब्रिटिश राजनीति भी नहीं रही अछूती
लेकिन भग्नावशेषों के बीच भी सोमनाथ मंदिर को लेकर हिंदुओं की आस्था इतनी प्रबल थी कि ब्रिटिश राजनीति भी उससे अछूती नहीं रही. इस मंदिर की चर्चा ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स तक चली. 1842 में अफगानिस्तान युद्ध के समय गवर्नर जनरल लार्ड एलेनबर्ग ने सेना को आदेश दिया कि गजनी में महमूद गजनवी की मजार के प्रवेश द्वार पर लगे चंदन के दरवाजे वापस लाएं. एलेनबर्ग के मुताबिक गजनवी सोमनाथ मंदिर पर हमले के बाद मूर्ति तोड़कर उसके चार टुकड़े और दरवाजे जीत के प्रमाण के तौर पर वापस ले गया था. मूर्ति के एक टुकड़े को उसने वहां मस्जिद के फर्श और दूसरे टुकड़े को अपने महल के प्रवेश द्वार की सीढ़ियों पर लगवाया था. दो टुकड़े मक्का और मदीना ले जाने के लिए रखे गए थे. मंदिर के दरवाजे महमूद गजनवी की मौत के बाद उसकी मजार के प्रवेश स्थान पर लगाए गए.
सोमनाथ मंदिर के दरवाजों का वो जुलूस !
अफगान युद्ध में जीत के बाद वहां गजनवी की मजार से उखाड़कर सोमनाथ मंदिर के दरवाजे वापस लाने का एलेनबर्ग का आखिर मकसद क्या था? एलेनबर्ग ने सतलज से सोमनाथ के बीच इनका जितना प्रदर्शन और प्रचार कराया उसके राजनीतिक निहितार्थों की उस समय खूब चर्चा हुई. एलेनबर्ग के सहायक कैप्टन विलियम रॉबर्ट हैरिस की देखरेख में फौज की 20 बैलगाड़ियों पर सवार 101 ब्राह्मण सिपाही इन्हें एक जुलूस की शक्ल में सोमनाथ तक लेकर पहुंचे. दरवाजों को लाल सिल्क के चंदोबे से ढंक रखा गया था. रास्ते की हिंदू जनता को इनके दर्शन के लिए प्रेरित किया गया. 9 मार्च 1843 को ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में इस मसले पर लंबी चर्चा चली. बहस में हिस्सा लेने वाले सदस्यों ने भारत में ब्रिटिश राज की स्थिरता के नजरिए से इस मुद्दे पर अपनी राय रखी. बहस दो मुद्दों पर केंद्रित रही. पहला कि मुस्लिम शासन के खात्मे के बाद क्या इससे हिंदुओं के आत्मगौरव और सम्मान की वापसी होगी? दूसरा भारत की मुस्लिम आबादी पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? निष्कर्ष था कि अत्यन्त संवेदनशील धार्मिक मसले में अंग्रेजों की दखल उनके शासन के लिए लाभप्रद नहीं रहेगी. इसी के साथ मंदिर के इन दरवाजों को भुला दिया गया. वैसे भी उस समय मंदिर के सिर्फ खंडहर शेष थे. दरवाजे लगते भी तो कहां? इस बात के कोई साक्ष्य नहीं हैं कि मंदिर के पुनर्निर्माण के अंग्रेजों की ओर से उस समय या बाद में कभी प्रयत्न हुए हों.
आजादी बाद भी प्रतीक्षा शेष
15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होने के बाद भी सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए अभी और प्रतीक्षा शेष थी. मंदिर जिस रियासत जूनागढ़ की सीमाओं में था, वहां का मुस्लिम नवाब पाकिस्तान में विलय का प्रस्ताव भेज चुका था. जिन्ना से इसकी मंजूरी भी दे दी थी. उस वक्त सरदार पटेल ने तेजी न दिखाई होती तो जूनागढ़ और सोमनाथ पाकिस्तान का हिस्सा होता. रियासत का भारत में विलय 8 नवम्बर 1947 को मुमकिन हुआ. 13 नवम्बर को जूनागढ़ में एक बड़ी सभा को सम्बोधित करने के बाद सरदार सोमनाथ मन्दिर दर्शन के लिए गए. ध्वस्त मंदिर ने सरदार को विचलित कर दिया. ढाई सौ साल के अंतराल पर मंदिर के दिन फिरने की उम्मीद दिखी. सरदार पटेल ने मंदिर के पुनरुद्धार का संकल्प लिया. फौरन ही जाम साहब ने एक लाख रुपये का दान दिया. सामलदास गांधी की अंतरिम सरकार की ओर से इक्क्यावन हजार देने की घोषणा की गई. पटेल के सहयोगी वी. पी . मेनन के अनुसार यह सब अकस्मात हुआ. इसमें कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं था.
मंदिर पुनरुद्धार को लेकर राजनीतिक जोड़-घटाव
लेकिन मंदिर के पुनरुद्धार कार्यक्रम में आगे राजनीतिक जोड़-घटाव शुरू हुआ. गांधी जी ने योजना को समर्थन दिया लेकिन शर्त रखी कि निर्माण में सरकारी पैसा न खर्च हो. पटेल ने इसे मान लिया लेकिन गांधी जी के 30 जनवरी 1948 और सरदार पटेल के 15 दिसम्बर 1950 के निधन के साथ पूरा परिदृश्य बदल गया. वामपंथी खेमा शुरू से इस योजना के विरोध में था. उधर नेहरू को अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि की फिक्र थी. वो सोचते थे कि मंदिर निर्माण में उनके कैबिनेट सदस्यों की भागीदारी उनकी और सरकार की धर्मनिरपेक्ष छवि के लिए नुकसानदेह है. पटेल के बाद मंदिर निर्माण की जिम्मेदारी नेहरू कैबिनेट के सदस्य के. एम. मुंशी निभा रहे थे. मंत्रिमंडल की एक बैठक के बाद नेहरू ने मुंशी से मंदिर मसले में उनके जुड़ाव पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की. मुंशी ने उनके ऐतराज को दरकिनार किया और मंदिर पुनरुद्धार को गति देने में लगे रहे.
नेहरू और राजेंद्र प्रसाद का टकराव
पर यह विवाद यहीं नहीं थमा. मुंशी ने मंदिर के उद्घाटन-प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति की स्वीकृति प्राप्त कर ली. नेहरू के लिए यह दोहरा झटका था. कैबिनेट सहयोगी के बाद देश के संवैधानिक प्रमुख भी उनकी सोच के उलट रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे. नेहरू ने 2 मार्च 1951 को राष्ट्रपति को पत्र लिखकर सोमनाथ मंदिर के कार्यक्रम से दूर रहने का सुझाव दिया. बताने की यह भी कोशिश की कि राष्ट्रपति की इस कार्यक्रम में मौजूदगी के गलत मायने निकाले जाएंगे जो मौजूदा माहौल को देखते हुए नुकसानदेह होंगे. डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने उनकी बात नहीं मानी. नेहरू एक कदम और आगे बढ़े. 2 मई 1951 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों को उन्होंने एक पत्र लिखा और बताया कि सोमनाथ मंदिर का कार्यक्रम सरकारी नहीं है. पत्र में सिर्फ इसी ही नहीं बल्कि इस जैसे अन्य कार्यक्रमों से दूरी बनाने की मुख्यमंत्रियों को सलाह दी गई थी. नेहरू की इच्छा के विपरीत डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद 11 मई 1951 को सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार कार्यक्रम में शामिल हुए. नेहरू ने उनके इस कार्यक्रम के आकाशवाणी में प्रसारण और सरकारी स्तर पर प्रेस विज्ञप्ति जारी करने पर रोक लगाकर अपनी नाराजगी जाहिर की.
भाजपा के अयोध्या आंदोलन का प्रवेश द्वार
अयोध्या के मंदिर विवाद की कमान संभालते हुए भाजपा ने इस आंदोलन का प्रवेश द्वार सोमनाथ मंदिर को बनाया. 25 सितंबर 1990 को सोमनाथ मंदिर में ज्योतिर्लिंग पूजन कर आडवाणी राम रथ पर सवार हुए थे. अयोध्या यात्रा की आडवाणी ने शुरुआत सोमनाथ से ही क्यों की? असलियत में यह मंदिर विदेशी आक्रांताओं के विध्वंस और अत्याचार की याद दिलाकर हिंदुओं में भावनाओं के ज्वार उठाता है. आजादी के बाद इसके पुनुरुद्धार के पक्ष में खड़े-जुटे सरदार पटेल और के. एम. मुंशी हिंदुओं के बीच आदर और श्रद्धा से याद किए जाते हैं. दूसरी ओर इसका विरोध करने वाले पंडित नेहरू के बहाने उनके राजनीतिक वारिस निशाने पर आते हैं. आडवाणी की सोमनाथ से शुरू यह यात्रा समस्तीपुर में उनकी गिरफ्तारी के साथ थम गई थी. बेशक तब उनका रथ अयोध्या नहीं पहुंच सका था लेकिन उस यात्रा ने भाजपा के राजनीतिक सफ़र को बड़ा विस्तार दे दिया था. राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर राजनीतिक कारणों से एक बार फिर सोमनाथ मंदिर के पुनुरुद्धार कार्यक्रम की खूब चर्चा हुई. यह अवसर भी कांग्रेस ने मुहैया किया. पार्टी ने राम मंदिर कार्यक्रम के आमंत्रण को ठुकराकर नए सिरे से सोमनाथ मंदिर पुनरुद्धार के पुराने विवाद को ताजा कर दिया था. इसने उनके विरोधियों को कहने का मौका दिया कि नेहरू-गांधी परिवार हमेशा हिंदू आस्था के प्रतीकों के विरोध में रहता है.