कर्नाटक के सोलिदादा सरदारा खरगे कांग्रेस के नए अध्यक्ष, ये दिल में आते हैं समझ में नहीं
खड़गे को कम आंकना उनके विरोधियों के लिए रणनीतिक भूल होगी. 1999 और 2004 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद के लिए प्रबल दावेदार रह चुके हैं. यह उनके राजनीतिक कौशल का सबसे बड़ा प्रमाण है.
कर्नाटक कांग्रेस का यह कद्दावर नेता अब अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े पद पर विराजमान हो गया है. कहने को तो यह कहा जाएगा कि मल्लिकार्जुन खरगे को गांधी परिवार के स्वामीभक्ति के रूप में ये प्रसाद मिला है. पर जब हम उनके राजनीतिक सफर पर नजर डालते हैं ये तो उनकी ये उपलब्धि उनके संघर्ष के आगे कमतर लगती है. कर्नाटक के यह अजेय सरदार 50 साल से लगातार सक्रिय राजनीति करतेे रहे हैं, केवल एक बार चुनाव हारने की नौबत आई.
इसी कारण कर्नाटक में इन्हें प्यार से सोलिदादा सरदारा बोला जाता रहा है. एक दलित परिवार में जन्म लेने वाले खरगे को सरकार और संगठन दोनों का जितना अनुभव है शायद बहुत कांग्रेसी उनके इस अनुभव का मुकाबला नहीं कर सकते. खरगे ने छात्र राजनीति से शुरुआत करके एक आम कार्यकर्ता के रूप में पार्टी को जॉइन किया और आज पार्टी के सर्वोच्च पद पर आसीन हुए हैं.
खरगे के राजनीतिक हुनर के प्रमाण
जहां तक राजनीतिक कौशल की बात है खड़गे को कम आंकना उनके विरोधियों के लिए रणनीतिक भूल होगी. वे 1999 और 2004 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद के लिए प्रबल दावेदार रह चुके हैं. यह उनके राजनीतिक कौशल का सबसे बड़ा प्रमाण है. हालांकि वे सफल नहीं हुए पर उसके पीछे जातिगत राजनीति के साथ कई ऐसे कारण रहे जो भारतीय राजनीति में हमेशा राजनीतिक कौशल पर भारी पड़ जाता रहा है. यह उनके हुनर का ही कमाल था कि 1999 से 2004 के बीच कर्नाटक में एसएम कृष्णा की सरकार में गृह मंत्री के तौर पर उन्होंने बेहद शांतिपूर्ण तरीके से प्रख्यात फ़िल्म अभिनेता राजकुमार को चन्दन तस्कर वीरप्पन के चंगुल से छुड़ाया था.
उन्होंने कावेरी दंगों को सुलझाने में भी अहम भूमिका निभाई थी. हालांकि कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति को बहुत नजदीक से देखने वाले पत्रकार रशीद क़िदवई ने उनके राजनीतिक टैलेंट पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए एक बार बीबीसी को बताया था कि पंजाब विधानसभा चुनावों में उन्होंने चन्नी पर भरोसा करके पार्टी का नुकसान कराया था. चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाने में खड़गे की काफ़ी भूमिका थी. पंजाब में कांग्रेस को बहुत नुक़सान हुआ. किदवई ने यह भी कहा था कि राजस्थान में वो पर्यवेक्षक बनकर गए थे लेकिन वो ना तो प्रदेश अध्यक्ष को और ना ही मुख्यमंत्री (अशोक गहलोत) को घेर पाए कि कांग्रेस विधायक दल की मीटिंग हो पाए.
सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ता रहा राजनीतिक कारवां
मल्लिकार्जुन खड़गे का जन्म 21 जुलाई 1942 को हुआ था. वो जहां पैदा हुए वो जगह आज के कर्नाटक के बीदर जिले के वरवत्ती गांव पुराने हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र में आती थी, जब वह सिर्फ 7 साल के थे तब वहां निजाम के राज में साम्प्रादियक दंगे हुए और इन दंगों में उन्हें अपनी मां और परिवार के सदस्यों को खोना पड़ा. इतना ही नहीं, दंगों की वजह से खरगे परिवार का सब कुछ खत्म हो गया. परिवार को पड़ोसी कलबुर्गी जिले में आना पड़ा जिसे पहले गुलबर्गा के नाम से जाना जाता था. इतना झेलने के बाद भी शायद यही वजह है कि खरगे सांप्रदायिकता के खिलाफ आज भी बहुत मुखर रहते हैं.
कलबुर्गी में बीए की पढ़ाई के दौरान वह छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए. उन्होंने कलबुर्गी के सेठ शंकरलाल लाहोटी लॉ कॉजेल से लॉ की डिग्री लेकर यूनियन पॉलिटिक्स में कदम रखा. 1969 में वह एमएसके मिल्स इम्प्लॉयीज यूनियन के लीगल एडवाइजर बने. जल्द ही उनकी गिनती संयुक्त मजदूर संघ के प्रभावशाली नेताओं में होने लगी, इसी साल खरगे कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए गुलबर्गा सिटी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए. 1994 में वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने. 2008 में दूसरी बार इस पद को संभाला. इसी साल कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष बनने में सफल हुए.
1971 में कांग्रेस से विधानसभा टिकट लेने में सफल हुए. उन्होंने गुरमितकल विधानसभा सीट से जीत हासिल की. 1971 से जीत का जो सिलसिला चला वह 2019 में आकर रुका. 2008 तक लगातार 9 बार वह कर्नाटक विधानसभा के सदस्य रहे. 2009 में उन्होंने कर्नाटक की गुलबर्गा लोकसभा सीट से जीत हासिल की. 2014 में वह एक बार फिर से लोकसभा के लिए चुने गए. 2009 में मनमोहन सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे. 2014 में जब बीजेपी सत्ता में आई तो वह लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बने. 2019 में मोदी लहर में उन्हें बीजेपी उम्मीदवार से शिकस्त खानी पड़ी. हालांकि कांग्रेस ने उनपर भरोसा जताते हुए जल्द ही उन्हें राज्यसभा में भेज दिया.