विकसित भारत संकल्प यात्रा में अफसरों की भागीदारी पर हंगामा क्यों?

विकसित भारत संकल्प यात्रा में अफसरों की भागीदारी पर हंगामा क्यों?

मोदी सरकार ने नौ वर्ष की सरकार की उपलब्धियों के प्रचार के लिए विकसित भारत संकल्प यात्रा निकालने की योजना बनाई है. इसके तहत 20 नवंबर से 25 जनवरी 2024 तक देश के हर जिले में एक रथयात्रा निकाली जाएगी, जिसके जरिए सरकार अपनी उपलब्धियां गांव-गांव फैलाएगी. इस रथयात्रा का प्रभारी सरकार का कोई वरिष्ठ अधिकारी होगा. कांग्रेस ने इस योजना पर आपत्ति जताई है और कहा है कि यह सरकारी अधिकारियों का राजनीतिकरण है. इस तरह लोकसेवक पार्टी के प्रचारक बन जाएंगे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी खूबी है कि वे हर समय चुनावी मोड में रहते हैं. वे कोई भी ऐसा मौका नहीं छोड़ना चाहते जिस पर वितंडा न बने. उनकी प्रतिद्वंदी पार्टी उनके हर फैसले पर हमला बोलती है. इसका लाभ भी PM मोदी को मिलता है. अब कांग्रेस यदि लोक सेवकों (सरकारी अधिकारियों) को सरकारी योजनाओं से दूर रहने को कहती है तो इस मामले में वह कोई दूध की धुली नहीं है. क्योंकि पूर्व की कांग्रेस सरकारें भी अपनी योजनाओं और उपलब्धियों का प्रचार इन्हीं लोक सेवकों के जरिए कराती थी. जिला और ग्राम पंचायतों तक कोई सरकारी योजना तब ही पहुंच सकेगी, जब स्वयं जिला अधिकारी उस योजना का प्रभारी बने. अभी तक ऐसा ही होता आया है. हर ऐसी योजना जो जन-जन तक पहुंचाने के लिए बनाई गई हो, उसका नोडल अधिकारी सदैव जिला अधिकारी को ही बनाया जाता रहा है.

मोदी सरकार का ताजा फैसला जिस पर वितंडा मचा है, वह है नौ वर्ष की अपनी सरकार की उपलब्धियों के प्रचार के लिए विकसित भारत संकल्प यात्रा निकालने की योजना. इस फैसले के तहत 20 नवंबर, 2023 से 25 जनवरी 2024 तक देश के हर जिले में एक रथयात्रा निकाली जाएगी, जिसके जरिए सरकार अपनी उपलब्धियां गांव-गांव फैलाएगी. इस रथयात्रा का प्रभारी सरकार का कोई वरिष्ठ अधिकारी होगा.

इस योजना का खुलासा तब हुआ जब 18 अक्तूबर को वित्त मंत्रालय ने इसके लिए संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव अधिकारियों के नामांकन मांगे. संयुक्त सचिव का मतलब कोई वरिष्ठ आईएएस अधिकारी. इस योजना में यह भी कहा गया है, कि जो फौजी छुट्टी पर गए हों. वह भी अवकाश के दौरान सरकार की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुंचाने में शरीक हो सकते हैं.

योजना का खुलासा होते ही बरपा हंगामा

योजना का खुलासा होते ही हंगामा बरपा हो गया. कांग्रेस ने इस पर सरकार को घेरने की कोशिश शुरू कर दी. 22 अक्तूबर को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर कहा कि यह सरकारी अधिकारियों का राजनीतिकरण है. इस तरह तो ये लोकसेवक किसी पार्टी के प्रचारक बन जाएंगे. उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति कि जो फौजी छुट्टी पर अपने घर आते हैं, उन्हें काम पर लगा देने का अर्थ है उनको उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियों से विरत करना. फौजी छुट्टी का समय अपने परिवार को देगा या सरकार की उपलब्धियों का प्रचार करेगा. फौजी का काम देश की सेवा करना है. उसे सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार में लगाना ठीक नहीं है.

दो कदम आगे बढ़ कर कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने इसे नरेंद्र मोदी का मेगालोमैनियाक (अहंकार से भरा हुआ) आदेश बताया तो पवन खेड़ा ने कहा कि सरकार इस तरह का आदेश कैसे दे सकती है. यह संविधान के विपरीत है.

फौरन पलट कर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ट्वीटर (X) पर लिखा, “मुझे यह देखकर हैरानी होती है कि कांग्रेस पार्टी को योजनाओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए जमीनी स्तर तक पहुंचने वाले लोक सेवकों से दिक्कत है. अगर ये शासन का मूल सिद्धांत नहीं है, तो क्या है? अगर मोदी सरकार सभी योजनाओं की संतृप्ति सुनिश्चित करना चाहती है और सभी लाभार्थियों तक पहुंचाना उसका लक्ष्य है तो गरीबों के हित को ध्यान में रखने वाले किसी भी व्यक्ति को समस्या नहीं हो सकती है. लेकिन कांग्रेस की रुचि केवल गरीबों को गरीबी में रखने में है और इसलिए वे विरोध कर रहे हैं.

कांग्रेस ने जताई आपत्ति, बीजेपी ने दिया जवाब

मल्लिकार्जुन खरगे ने यह आशंका जताई है कि जिस तरह सरकार छुट्टियों पर गये फौजियों को इस संकल्प रथ यात्रा से जोड़ने की बात कर रही है, उससे फौजी सैनिक राजदूत बन जाएंगे. उनके अनुसार सेना को सरकारी योजनाओं को बढ़ावा देने जैसे प्रोग्राम से दूर रखना चाहिए. कांग्रेस के अनुसार इस तरह तो सेना को किसी पार्टी विशेष से जोड़ा जाएगा, जबकि उसकी निष्ठा सिर्फ देश और संविधान से होनी चाहिए.

कांग्रेस का कहना है कि सरकारी अधिकारियों को किसी राजनैतिक पार्टी की उपलब्धियों का प्रचार पहले कभी नहीं हुआ. जबकि सत्यता इसके विपरीत है. प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायती राज योजना को गरम पंचायत स्तर पर प्रचारित करने के लिए सरकारी अधिकारियों का सहारा लिया था.

अब यह पूरा मामला लोकसेवकों को प्रभारी बनाए जाने से जुड़ गया है. जबकि मुद्दा होना चाहिए कि चुनावी वर्ष में ऐसी कौन-सी जनोपयोगी योजना जिसको प्रचारित करने के लिए सरकार इतनी उद्यत है. कांग्रेस अंध विरोध में यह नहीं सोच पा रही कि अनजाने में ही वह भाजपा को मुद्दा दे रही है. पहले की कांग्रेस सरकारों के समय भी अपनी योजनाओं और विकास कार्यों को जनता तक पहुंचने के लिए इस तरह के प्रयास होते रहे हैं.

प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायती राज योजना के लाभ को गांव-गांव पहुंचाने और बताने के लिए जिला अधिकारियों का सहयोग लिया था. मजे की बात कि उन्होंने इसका प्रचार 1988 में किया और 1989 में लोकसभा चुनाव होने थे. इसलिए भाजपा के मत्थे ही अफसरों का राजनीतिकरण करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता.

सरकारी अफसरों का राजनीतिकरण का आरोप

इंदिरा गांधी ने भी प्रिवीपर्स समाप्त करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रचार अधिकारियों के माध्यम से किया था. इसके बाद उन्हें चुनाव में भारी सफलता मिली थी. हर सरकार अपनी उपलब्धियों का प्रचार चुनावी साल में करती ही आई है. इसलिए यह आरोप पुख्ता नहीं है कि सरकार अफसरों का रजनीतिकरण कर रही है.

सच तो यह है, कि आज लोकतंत्र की रीढ़ कहे जाने वाले सभी लोग राजनीति में प्रवेश करने और वहां जमे रहने के इच्छुक हैं. अफसर रिटायर होते ही राजनीति में प्रवेश के लिए व्याकुल रहता है. हर राजनीतिक दल उनको प्रवेश देता है. कांग्रेस में ही कितने अफ़सर घुसे और भाजपा में भी. जदयू, सपा-बसपा आदि में भी इनकी कमी नहीं है. यहां तक कि रिटायर होने के बाद जज भी इसी प्रयास में रहते हैं.

नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस का विरोध और भाजपा का समर्थन सिर्फ सोशल मीडिया पर छाया है. भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय और कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ही इस मुद्दे को लेकर परस्पर भिड़े हैं. जनता बस तमाशा देख रही है.

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