आनंद मोहन सिंह न विश्वसनीय चेहरा और न बड़ा जनाधार, फिर भी महागठबंधन के लिए इतने अहम क्यों?
आनंद मोहन सिंह राजनीति में कभी विश्वसनीय चेहरा नहीं बन सके. जेपी के साथ समाजवाद का झंडा बुलंद करने वाले आनंद मोहन सिंह 90 के दशक में जातीय राजनीति का चेहरा थे. बिहार को जातीय उन्माद में धकेलने वाले नेताओं में आनंद मोहन सिंह का भी नाम शामिल है.
बिहार के पूर्व बाहुबली सांसद आनंद मोहन सिंह की जेल से रिहाई का रास्ता साफ हो गया है. नीतीश सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी कर सरकारी सेवक की हत्या को अपवाद की श्रेणी से हटाकर साधारण हत्या कर दिया है. बिहार के बाहुबली नेता और पूर्व सांसद आनंद मोहन गोपालगंज के तत्कालीन DM जी. कृष्णैया हत्याकांड में सजायाफ्ता हैं. मामले में वह उम्रकैद की सजा काट चुके हैं लेकिन बिहार में लोक अभियोजक की हत्या अपवाद की श्रेणी में है इसलिए उनकी रिहाई नहीं हो पाई. वह अभी पैरोल पर बाहर हैं. आनंद मोहन सिंह बिहार की राजनीति में वह नाम हैं जो 90 के दशक में किसी फिल्मस्टार की तरह चर्चा में रहे. तब उनकी एक झलक पाने के लिए हजारों हजार की भीड़ जमा हो जाती थी. आनंद मोहन बिहार की राजनीति में लालू विरोध का चेहरा थे. ये अलग बात है कि लालू शरण में जाने के बाद ही उनकी राजनीति परवान चढ़ी और अब जब वह जेल में बंद हैं तब उनकी पत्नी और बेटे लालू यादव की पार्टी आरजेडी से राजनीति कर रहे हैं.
आनंद मोहन सिंह राजनीति में कभी विश्वसनीय चेहरा नहीं बन सके. जेपी के साथ समाजवाद का झंडा बुलंद करने वाले आनंद मोहन सिंह 90 के दशक में जातीय राजनीति का चेहरा थे. बिहार को जातीय उन्माद में धकेलने वाले नेताओं में आनंद मोहन सिंह का भी नाम शामिल है. बिहार की राजनीति को अपराध और बाहुबल के लिए जब भी याद किया जाएगा तब आनंद मोहन सिंह, रामा सिंह, सूरजभान सिंह, अनंत सिंह और पप्पू यादव का नाम सामने आएगा.
कथित बैकवर्ड और कथित फारवर्ड को आमने सामने करने वाले नेताओं में आनंद मोहन सिंह भी पहली कतार में हैं. आनंद मोहन सिंह की राजनीति में कभी स्थायित्व नहीं रही. जेपी आंदोलन से बिहार की सियासत में आए मोहन सिंह 1990 में जनता दल से विधायक बने. फिर मंडल कमीशन की 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश के खिलाफ सवर्ण राजनीति का झंडा बुलंद करने के लिए उन्होंने 1993 में बिहार पीपुल्स पार्टी बना ली. 1995 में आनंद मोहन सिंह जब लोकप्रियता के चरम पर थे तब तीन जगहों से विधानसभा चुनाव लड़ा और तीनों जगहों से हार गए. 1998 आते आते वह लालू की शरण में पहुंच गए और दूसरी बार आरजेडी की सहायता से लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे.
बीजेपी कांग्रेस, आरजेडी सब घाट का पानी पिया
1999 में आनंद मोहन सिंह बीजेपी और 2000 आते-आते कांग्रेस की शरण में थे. 2007 में उन्हें जी. कृष्णैया हत्याकांड में फांसी की सजा सुनाई गई. आनंद मोहन सिंह आजाद भारत के पहले नेता थे जिन्हे फांसी की सजा सुनाई गई थी. इसके बाद से वह लगातार जेल में हैं. आनंद मोहन सिंह के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी लवली आनंद ने उनकी राजनीति को संभाला. लवली आनंद भी आनंद मोहन की तरह ही दलबदलू राजनीति करती रहीं और लगातार चुनाव हारती रही हैं. 2014 में मोदी लहर में भी वह चुनाव नहीं जीत पाईं.
क्षेत्रीय क्षत्रप कमजोर हुए हैं.
दरअसल बिहार की राजनीति में नीतीश-लालू जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप कमजोर हुए हैं और बीजेपी मजबूत. बीजेपी ने सभी जातीय समीकरण को कमजोर कर दिया है. जातीय वोटों के बड़े-बड़े पैकेट रखने वाली पार्टियां कमजोर हो रही है. बीजेपी इनके आधार वोट बैंक में सेंधमारी कर रही हैं. बीजेपी ने सम्राट चौधरी को आगे कर लवकुश समीकरण को चुनौती दी है तो रामकृपाल यादव और नित्यानंद राय लगातार MY से Y को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहे हैं. पिछड़ा बड़ी संख्या में बीजेपी के साथ हैं. दलितों को साधने के लिए अमित शाह चिराग-मांझी को अपने पाले में लाने की जुगत में हैं. इसके बाद सात पार्टी वाली महागठबंधन में छटपटाहट है और बीजेपी के सेंधमारी का जवाब सेंधमारी से देने की कोशिश कर रही है.
क्यों महत्वपूर्ण हो गए हैं आनंद मोहन सिंह
बिहार में सवर्ण बीजेपी के कोर वोटर माने जाते हैं और आनंद मोहन सिंह सवर्ण नेता हैं खासकर राजपूत जाति के. अभी महागठबंधन में कोई बड़ा राजपूत चेहरा नहीं है. जगदानंद सिंह नेता कम आरजेडी मैनेजर ज्यादा हैं. उनके बेटे सुधाकर सिंह का कद इतना बड़ा नहीं है कि वह राजपूत वोटर को अपने पाले में कर सकें. साथ ही नीतीश कुमार पर हमलावर रहने की वजह से आरजेडी उनसे असहज महसूस कर रही है. RJD उनसे कभी भी किनारा कर सकती है. जेडीयू एमएलसी संजय सिंह हो या सीवान सांसद कविता सिंह के पति अजय सिंह इनकी पहचान एक क्षेत्र तक सीमित है. यही वजह है कि नीतीश सरकार आनंद मोहन की रिहाई कर चुनाव से पहले अपने तरकश में आनंद मोहन नाम की तीर शामिल करना चाह रही है. अब महागठबंधन के लिए आनंद मोहन ब्रह्मास्त्र साबित होते हैं या फूंके हुए कारतूस यह तो 2024 में पता चलेगा.
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