Navratri 2024: बंगाल में एक दिन पहले ही क्यों शुरू हो गई नवरात्रि?

Navratri 2024: बंगाल में एक दिन पहले ही क्यों शुरू हो गई नवरात्रि?

महालया अमावस्या पर पितरों को तर्पण के साथ नवरात्रि का जश्न एक दिन पहले ही शुरू हो गया है. इसी क्रम में शाम को चक्षुदान कार्यक्रम होगा और उसकी साथ विभिन्न कार्यक्रम शुरू हो जाएंगे. इससे पहले बुधवार की सुबह चार बजे ऑल इंडिया रेडियो पर चड़ी पाठ किया गया.

Navratri Puja: वैसे तो समूचे देश में नवरात्रि का पर्व कल शुरू होगा, लेकिन बंगाल में तो कुछ और ही विधान है. यहां आज सुबह यानी महालया अमावस्या को ही चंडीपाठ हो गया. इस मौके पर सुबह चार बजे से वीरेंद्र कृष्ण भद्र द्वारा साल 2031 में गाए चंडी पाठ को ऑल इंडिया रेडियो से प्रसरित किया गया. इसके बाद लोग गंगा घाट एवं अन्य पवित्र जलाशयों पर पहुंचे, जहां पितरों का तर्पण कर उन्हें महालय यानी बड़े घर यानी भगवान के घर के लिए विदा किया गया. वहीं शाम को माता का चक्षुदान होगा. इसमें माता की प्रतिमाओं में आंखों को आकार दिया जाएगा.

इसके साथ ही समूचे राज्य भर में नवरात्रि का जश्न शुरू हो जाएगा. इसी लिए आज के पर्व को महालया कहते हैं. यह संस्कृत का शब्द है तथा महा और आलय शब्द के संयोग से बना है. इसका मतलब बड़ा घर है. रामकृष्ण मिशन विवेकानंद एजुकेशनल एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के असिस्टेंट प्रोफेसर राकेश दास कहते हैं कि महालया को ही बंगाल में अंतिम श्राद्ध होता है और इसी दिन नवरात्रि शुरू होती है. इस दिन को हम अपने पितरों को भगवान के घर में सुरक्षित पहुंचाने के बाद माता रानी का आह्वान करते हैं.

Navratri Celebration: चक्षुदान कर नवरात्रि का जश्न

इसके लिए दोपहर बाद विभिन्न पंडालों में विराजमान माता की प्रतिमाओं में आंखों को आकार देकर खोल दिया जाता है. इसे चक्षुदान कहा जाता है. राकेश दास के मुताबिक इस तरह की परंपरा किसी शास्त्र में तो नहीं है, लेकिन बंगाल के लोकाचार में शामिल है. सदियों से लोग इस परंपरा को निभाते चले आ रहे हैं. यहां मूर्तिकार समाज के लोगों ने बताया कि किसी भी पंडाल में मूर्ति लगती है तो उनके समाज के वरिष्ठ लोग ही चक्षुदान के लिए जाते हैं. जैसे ही वह माता की आंखों का आकार देते हैं, जयकारों के साथ उत्सव शुरू हो जाता है.

Pooja Pandal: पहली बार एक हजार साल पहले सजा पंडाल

बंगाल में दुर्गा पूजा का इतिहास करीब एक हजार साल पुराना है. दरअसल उस समय बंगाल में राजा कंश नारायण हुआ करते थे. उन्होंने दुनिया भर में ख्याति अर्जित करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ का फैसला किया था. इसके लिए तमाम विद्वानों से उन्होंने राय ली, लेकिन सबने कहा कि कलियुग में अश्वमेघ यज्ञ का विधान ही नहीं है. फिर सभी विद्वानों ने एकराय होकर राजा को दुर्गा पूजा की महिमा बताई और पंडाल सजाने को कहा. इसके बाद राजा ने पहली बार साल 1480 में भव्य और दिव्य तरीके से दुर्गा पूजा किया. उसके बाद से तो यह परंपरा ही शुरू हो गई.