मौजूदा संकट से श्रीलंका में चीन का प्रभाव कम हो सकता है, भारत को भी सावधान रहने की जरूरत है
भारत और चीन के साथ भी इसके संबंधों में परिवर्तन आया है.भारत के दूसरे पड़ोसियों की तरह, श्रीलंका ने भी भारत और चीन की प्रतिद्वंदिता का फायदा उठाने का प्रयास किया है.
श्रीलंका में राजपक्षे परिवार के शासन के खात्मे से न केवल इस देश में बदलाव आया है, बल्कि दो एशियाई दिग्गजों, भारत और चीन के साथ भी इसके संबंधों में परिवर्तन आया है.भारत के दूसरे पड़ोसियों की तरह, श्रीलंका ने भी भारत और चीन की प्रतिद्वंदिता का फायदा उठाने का प्रयास किया है. खास तौर पर राजपक्षे परिवार ने ऐसी कोशिशें ज्यादा की हैं. जब 2015 में महिंदा राजपक्षे पहली बार प्रधानमंत्री बने, और इसके बाद 2019 में अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान, जब उनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्षे राष्ट्रपति बने, इन भाइयों ने भारत को काफी हद तक दरकिनार किया. और श्रीलंका को चीन के खेमे में ले जाकर खड़ा कर दिया.
तमिल उग्रवाद ने भारत-श्रीलंका संबंधों को प्रभावित किया
करीबी पड़ोसी होने के नाते, भारत के श्रीलंका के साथ घनिष्ठ सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध रहे हैं. लेकिन 1948 में श्रीलंका की आजादी के बाद, देश के उत्तरी इलाके में सिंहली बहुसंख्यक और तमिलों के बीच तनाव से भारत और श्रीलंका के संबंध प्रभावित हुए. श्रीलंका की राजनीति और नौकरशाही में तमिलों को नजरअंदाज किए जाने और फिर तमिलों के प्रतिरोध से हालात और खराब हुए. 1983 में तमिलों के नरसंहार के कारण उत्तरी श्रीलंका में सशस्त्र तमिल विद्रोही समूहों का जन्म हुआ. इसके परिणामस्वरूप गृहयुद्ध और फिर 2009 में रक्तपात हुआ. इस रक्तपात ने तमिल उग्रवाद की कमर तोड़ दी.प्रधानमंत्री के रूप में महिंदा ने तमिल उग्रवाद को कुचलने में अहम भूमिका निभाई. इससे वे सिंहलियों के प्रिय बन गए. तमिल उग्रवाद के खात्मे का नेतृत्व छोटे भाई गोटाबाया ने किया, जो श्रीलंकाई सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल थे और उस समय रक्षा सचिव थे.इस अभियान ने राजपक्षे परिवार को श्रीलंका में सबसे शक्तिशाली राजनीतिक परिवार बना दिया. चीन लिट्टे को कुचलने के लिए श्रीलंकाई सेना को हथियार मुहैया कराकर श्रीलंका के करीब आया. सिंहली हमेशा यह शक करते कि भारत, तमिल अल्पसंख्यकों के लिए सहानुभूति रखता है. इससे कोलंबो और दिल्ली की दूरी बढ़ती रही.
चीनी कर्ज की जाल में फंसा श्रीलंका
वैश्विक शिपिंग रूट के लिहाज से श्रीलंका अहम स्थान पर है. इसकी वजह से पिछले एक दशक में वह, भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और समुद्री प्रतिस्पर्धा का एक ठिकाना बन गया. हालांकि, श्रीलंका ने भारत के साथ व्यापार संबंध बनाए रखा, लेकिन बीजिंग के साथ भी उसके आर्थिक संबंध मजबूत होते गए. तमिल विद्रोह को कुचलने के बाद जब राजपक्षे परिवार ने मेगा इंफ्रा प्रोजेक्ट शुरू किए तो उन्होंने चीन से भारी उधार लिया, और श्रीलंका चीनी कर्ज के जाल में फंस गया. श्रीलंका मैरीटाइम सिल्क रोड का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी बन गया, जो चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का हिस्सा है. बीआरआई, एक वैश्विक संपर्क परियोजना है, जिसका मकसद एशिया को यूरोप से जोड़ना है.विकासशील देशों को चीन की मदद या लोन विशुद्ध रूप से व्यापारिक होता है. लेकिन ऐसी मदद या लोन से उधार लेने वाले देशों की चीन पर निर्भरता बढ़ती जाती है. इससे स्वतंत्र निर्णय लेने की उनकी क्षमता प्रभावित होती और यहां तक कि उनकी संप्रभुता भी खतरे में पड़ सकती है.लेकिन श्रीलंका की कई परियोजनाएं आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं रहीं, खासकर हंबनटोटा बंदरगाह और मटला राजपक्षे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा. कोविड-19 महामारी के कारण, यह बंदरगाह और हवाई अड्डा लगभग निर्जन रहे.
बचाव में आता है भारत
2017 में श्रीलंका चीन का कर्ज चुकाने में असमर्थ हो गया. यह कर्ज अब 51 बिलियन डॉलर का हो गया है, जो श्रीलंका के कुल विदेशी कर्ज के दसवें हिस्से के बराबर है. चीनी कर्ज के कारण कोलंबो को हंबनटोटा पोर्ट और इसके आसपास की हजारों एकड़ जमीन, 99 वर्षों के लिए चीन को सौंपनी पड़ी. इससे श्रीलंका के बुद्धिजीवियों और जानकारों के मन में यह भय पैदा हुआ कि कहीं, श्रीलंका की संप्रभुता खतरे में तो नहीं पड़ रही है और वह चीनी कर्ज के जाल में तो नहीं फंस रहा है. चीनी कर्ज को लेकर पारदर्शिता की कमी और ज्यादा ब्याज दरों के मुद्दों ने भी जोर पकड़ा. इससे चीनी परियोजनाओं को लेकर लोगों में शंकाएं पैदा हुईं. इसी तरह, पाकिस्तान के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) सहित अन्य जगहों पर भी चीनी परियोजनाएं सवालों के घेरे में हैं.विश्व बैंक ने श्रीलंका को एक मध्यम आय वाले देश के रूप में वर्गीकृत किया है. उसने इसे कम ब्याज वाले लोन के लिए अयोग्य घोषित कर दिया, जिससे वाणिज्यिक उधार के लिए श्रीलंका, चीनी कर्ज पर निर्भर हो गया. जापान, जो एक प्रतिशत से कुछ अधिक ब्याज पर लोन देता था, को भी भारत की तरह नजरअंदाज कर दिया गया. इससे श्रीलंका, चीन के प्रति अधिक उदार हो गया.
चीन ने कम किया इंफ्रा योजनाओं में पैसा लगाना
लेकिन बाद में चीन ने श्रीलंका की इंफ्रा परियोजनाओं में पैसा लगाना कम कर दिया. इससे श्रीलंका को अपने पारंपरिक मददगार, भारत की ओर देखना पड़ा. भारत ने भी श्रीलंका में फिर से भारतीय निवेश के दरवाजे खोल दिए. मार्च 2022 में, दोनों देशों ने उत्तरी श्रीलंका में हाइब्रिड बिजली परियोजनाएं स्थापित करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. उसी महीने, श्रीलंका ने 500 मेगावाट पवन ऊर्जा प्रोजेक्ट के लिए एक चीनी फर्म के साथ समझौते को भी रद्द कर दिया, और इसके बजाय भारतीय कारोबारी गौतम अडानी की कंपनी को यह परियोजना देने की पेशकश की. इससे पहले, पूर्वी तट पर त्रिंकोमाली के बंदरगाह पर एक तेल टर्मिनल को दोबारा चालू करने के लिए, श्रीलंका ने भारत के साथ एक संयुक्त परियोजना का काम तेज किया.मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक संकट के दौरान, जब आम श्रीलंकाई भारी महंगाई की मार झेल रहे हैं और इस देश के करीब एक तिहाई परिवार गरीब हो चुके हैं, भारत ने सबसे पहले मदद दी. भारत ने इसे चावल और ईंधन दिया. दिल्ली ने कोलंबो को खाद्य, ईंधन, दवाएं और उर्वरक आयात करने में सक्षम बनाने के लिए लगभग 1.5 बिलियन डॉलर दिए. साथ ही भारत ने करेंसी स्वैप और क्रेडिट लाइन के रूप में श्रीलंका को 3.8 बिलियन डॉलर की दूसरी सहायता भी दी है.
चीन ने मानवीय सहायता में दिए 75 मिलियन डॉलर
चीन ने मानवीय सहायता में करीब 75 मिलियन डॉलर दिए हैं और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ श्रीलंका की बातचीत में “सकारात्मक भूमिका निभाने” का वादा किया है. लेकिन, कर्ज और लोन रिस्ट्रक्चरिंग पर श्रीलंका की अपील को लेकर चीन चुप रहा. गंभीर संकट के समय, जनवरी में, जब चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने कोलंबो का दौरा किया, श्रीलंका सरकार को लोन रिस्ट्रक्चरिंग और नए लोन की उम्मीद थी, लेकिन उसे कोई आश्वासन नहीं मिला. दूसरी ओर, वांग ने श्रीलंका से आईएमएफ के साथ बातचीत करने को कह दिया.ऐसा लगता है कि श्रीलंका की दुर्दशा के प्रति चीन की बेरुखी ने श्रीलंका में कई लोगों की आंखें खोल दी हैं. जबकि भारत की तत्काल मदद ने, नई समझ पैदा करने और सराहना हासिल करने में पहले से कहीं अधिक योगदान दिया है.
लेकिन भारत विरोधी भावनाएं भी गहरी हैं
कई लोग मानते हैं कि रानिल विक्रमसिंघे भारत के करीब हैं और वह भारत से संबंधों को बढ़ावा देंगे, लेकिन यह भी दोधारी तलवार बन सकता है. श्रीलंकाई प्रदर्शनकारी, विक्रमसिंघे को अभिजात्य वर्ग का और राजपक्षे के प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं. गाले फेस में प्रदर्शनकारियों के शिविर को हटाने और सुरक्षाबलों के साथ उनकी निकटता ने इस नए राष्ट्रपति के प्रति विद्रोहियों के गुस्से को भड़का दिया है.भारत के पक्ष में विक्रमसिंघे का कोई कदम, इस देश में भारत की मौजूदा लोकप्रियता को खत्म भी कर सकता है. क्योंकि यहां अंदर-ही-अंदर भारत विरोधी भावनाएं मौजूद हैं. श्रीलंकाई तमिल, श्रीलंका के संविधान में 13वें संशोधन के कार्यान्वयन में भारत के हस्तक्षेप की उम्मीद कर रहे हैं. इस संविधान संशोधन का संबंध, तमिल बहुसंख्यक उत्तरी और पूर्वी प्रांतों के लिए क्षेत्रीय स्वायत्तता प्रदान करने से है. लेकिन भारत द्वारा तमिल अल्पसंख्यकों की मदद करना, उल्टा भी पड़ सकता है.
राजपक्षे के कई करीबी नई व्यवस्था में लगे
इसके अलावा, राजपक्षे के कई करीबी नई व्यवस्था में भी बने हुए हैं. ये भारत विरोधी हैं और चीन के साथ घनिष्ठ संबंध पसंद करते हैं. उदाहरण के लिए, बीजिंग में श्रीलंकाई राजदूत पलिता कोहोना ने हाल ही में चीनी मीडिया को एक इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने अपने देश के अब तक के सबसे खराब संकट के दौरान भारतीय मदद को कम करके आंका, और इसके उलट लिट्टे के साथ युद्ध के दौरान चीनी मदद की काफी तारीफ की.कोहोना ने ग्लोबल टाइम्स से कहा, “यह कहना गलत लगता है कि भारत ने चीन से ज्यादा मदद की, या भारत ने तत्काल रूप से बहुत कुछ किया. निश्चित रूप से भारत आगे आया और मदद की, जिसके लिए हम उसकी सराहना करते हैं. लेकिन चीन भी बहुत मददगार रहा है. अतिरिक्त सहायता पैकेज के लिए हम चीनी अधिकारियों के साथ चर्चा कर रहे हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “चीन बहुत करीबी दोस्त रहा है, खासकर हाल के दिनों में. आतंकवाद और अलगाववाद से हमारे युद्ध के दौरान, चीन श्रीलंका के साथ खड़ा रहा और अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारा समर्थन किया. हमें चीन की दोस्ती के बारे में कभी कोई संदेह नहीं रहा.”
कोहोना के लहजे से संकेत मिलता है कि राजपक्षे के करीबी नेताओं के भीतर भारत विरोधी भावनाएं गहरी बनी हैं, और संभावना है कि वे चेहरे विक्रमसिंघे के शासन में भी बने रहेंगे. श्रीलंका की और मदद को लेकर कदम बढ़ाने से पहले भारत को इस बात का ध्यान रखना होगा.