नेता से जज और जज से नेता बनने वालों की लंबी है फेहरिस्त… तो अब हंगामा क्यों है बरपा
ये पहली बार नहीं है कि किसी राजनीतिक दल से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी शख्शियत को जज की कुर्सी मिली हो. इतिहास में ऐसे और भी उदाहरण हैं. इसके बाद भी ये शोर है कि थमने का नाम नहीं ले रहा है.
लक्ष्मण चंद्रा विक्टोरिया गौरी को जबसे मद्रास हाई कोर्ट का जज नियुक्त किए जाने की खबरें बाहर आईं, तभी से मानो देश की राजनीति और न्यायायिक व्यवस्था के बीच बवाल सा मचा हुआ है. सहमति और विरोध को लेकर मचे हो-हल्ला के बीच उन्हें पद और गोपनीयता की शपथ भी दिलाई जा चुकी है. इसके बाद भी मगर शोर है कि थमने का नाम नहीं ले रहा है.
आजाद हिंदुस्तान की हद में यह कोई पहला मौका नहीं है जब, किसी राजनीतिक दल से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी रही शख्शियत को जज की कुर्सी तक पहुंचने का मौका मिला हो. इतिहास के पीले पड़ चुके पन्नों को ब-हिफाजत पलटकर देखने-पढ़ने से ऐसे और भी तमाम उदाहरण मिल जाएंगे, जो इस बात की तस्दीक करेंगे कि, जब कई नेताओं ने जज की कुर्सी पर काम किया और कई जजों ने बाद में नेताओं की जिम्मेदारी संभाली.
इसके सबसे मजबूत उदाहरण कहे जा सकते हैं वीआर कृष्ण अय्यर, केएस हेगड़े, जस्टिस एफ रिबोले, आफताब आलम, जस्टिस अभय थिपसे आदि. आइए सबसे पहले जिक्र कर लेते हैं केएस हेगड़े का, जिन्होंने अंग्रेजों के दौर में (सन् 1933) वकालत शुरू की थी. सन् 1947 से लेकर सन् 1957 तक वे सरकारी वकील और लोक-अभियोजक भी रहे. सन् 1952 में उन्हें कांग्रेस दल के प्रत्याशी के बतौर राज्यसभा के लिए भेज दिया गया.
1957 में वे राज्यसभा के सदस्य रहते हुए ही, मैसूर हाई कोर्ट के न्यायाधीश नियुक्त कर दिए गए. तभी उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. वे सन् 1966 तक मैसूर हाई कोर्ट में ही नियुक्त रहे थे. बाद में दिल्ली, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बना दिए गए. यह किस्सा उन्हीं रिटायर्ड जस्टिस के कावटूर सदानन्द हेगड़े का है, जिन्होंने 30 अप्रैल सन् 1973 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. इसलिए क्योंकि तब उनसे जूनियर को भारत का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया था.
जस्टिस हेगड़े के ही मामले में ये भी अजब इत्तिफाक है कि न्यायायिक सेवा से इस्तीफा देने से पहले वे ‘नेता’ थे. न्यायायिक सेवा से इस्तीफा देने के बाद वे फिर से ‘नेता’ बन गए. सन् 1973 में जज की कुर्सी से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने जनता पार्टी के टिकट पर दक्षिण बेंगलुरू (उस जमाने का बंगलौर) संसदीय निर्वाचन से सांसद बने. 20 जुलाई 1977 तक वे यहां से सांसद रहे. इसके एक दिन बाद ही यानी 21 जुलाई सन् 1977 को ही उन्हें भारत की लोकसभा का अध्यक्ष चुन लिया गया.
अब बात करते हैं जस्टिस आफताब आलम की. जो पहले तो नेता थे मगर न्यायाधीश बनने के लिए उन्होने राजनीति को अलविदा कर दिया. उन्होंने कानून की पढ़ाई की थी. पटना हाई कोर्ट से वकालत शुरू की. सितंबर 1981 में हाई कोर्ट में भारत सरकार के अतिरिक्त स्थाई वकील नियुक्त हुए. इस पद पर वे सन् 1985 तक नियुक्त रहे. इसी बीच उन्होंने सीपीआई की सदस्यता ग्रहण कर राजनीति में छलांग लगा दी. बाद में वहां से वे कांग्रेस के नेता हो लिए.
27 जुलाई सन् 1990 को पटना हाई कोर्ट के जब जज बने तो उन्होंने नेतागिरी छोड़ दी. 2007 तक वे कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में जम्मू एंड कश्मीर हाई कोर्ट पहुंच गए. जबकि सन् 2007 में ही वे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नियुक्त कर दिए गए. इन्ही सबसे काफी हद तक मिलती जुलती कहानी है वीआर कृष्ण अय्यर की. जो पहले तो नेतागिरी की सीढ़ियां चढ़कर मंत्री बने और फिर राजनीति की सीढ़ी से नीचे उतरते ही सुप्रीम कोर्ट के जज की कुर्सी पर दिखाई दिए.
वे केरल की ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री भी रहे थे. मंत्री के रूप में सन् 1950 के दशक में केरल में उन्होंने ही भूमि सुधार कानून सख्ती से लागू कराए थे. सन् 1957 में वे नम्बूदरीपाद मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बनाए गए. सन् 1959 से उन्होंने दोबारा वकालत शुरू कर दी और सन् 1968 में वे केरल हाई कोर्ट के जज नियुक्त किए गए. कभी कानून और कभी पॉलिटिक्स की सीढ़ी पर चढ़ते-उतरते रहने वाले ऐसे वीआर कृष्ण अय्यर 17 जुलाई सन् 1973 को सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में जस्टिस के पद तक जा पहुंचे.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस रहते हुए उन्होंने आईपीसी और पुलिस व्यवस्था में कई ऐतिहासिक फैसले देकर उनमें वे परिवर्तन किए, जो तभी से मील का पत्थर बन चुके हैं. विचाराधीन कैदियों पर जेल की जगह जमानत पर ज्यादा जोर दिए जाने का उन्हीं का ऐतिहासिक फैसला था. वो फैसला उन्होंने न केवल विचाराधीन कैदियों के हितार्थ सुनाया था. अपितु उनके उस फैसले से जेलों में गाजर मूली की तरह ठूंस-ठूंसकर भर दिए गए कैदियों बोझ-भीड़ भी जेलों से कम करने में मदद मिलनी शुरू हो गई.
उन्होने इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अपील को ठुकरा दिया. तो वे रातों रात देश दुनिया में चर्चाओं में आ गए. 14 नवंबर 1980 के सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के पद से रिटायर होने वाले वीआर कृष्ण अय्यर ने सन् 1987 में राष्ट्रपति पद के लिए भी ताल ठोकी थी. हालांकि तब उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा और कांग्रेस प्रत्याशी आर वेंकटरमण देश के राष्ट्रपति बने.
अब जिक्र जस्टिस एफ रिबोले का. जो सन् 1966 में बॉम्बे हाई कोर्ट में जस्टिस बनाए जाने से पहले तक, गोवा से जनता पार्टी के विधायक रहे थे. सन् 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस पद से रिटायर होने के बाद उन्होंने अनंतनाग क्षेत्र से लोकसभा प्रत्याशी के रूप में भी राजनीति के अखाड़े में भाग्य आजमाया. इसी तरह से जस्टिस अभय थिपसे की कहानी है. वे इलाहाबाद हाई कोर्ट और बॉम्बे हाई कोर्ट में जस्टिस के पद पर नियुक्त रहे थे.
न्यायायिक सेवा से सन् 2018 में रिटायर होने के बाद उन्होंने भी राजनीति के गलियारों में चहल-कदमी शुरू कर दी थी. जिसके चलते वे रिटायरमेंट के बाद कांग्रेस का कंधा पकड़कर जा खड़े हुए. ये वही जस्टिस अबय थिपसे रहे जो न्यायायिक सेवा में जज रहते हुए कभी, बेस्ट बेकरी से बदनाम केस और सोहराबद्दीन एनकाउंटर कांड के फैसले-सुनवाई से जुड़े रहे थे.