कब तक बंटता रहेगा फ्री राशन? इन रेवड़ियों से किसका हो रहा है भला

कब तक बंटता रहेगा फ्री राशन? इन रेवड़ियों से किसका हो रहा है भला

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छत्तीसगढ़ में घोषणा की कि फ्री राशन बांटने की मियाद पांच वर्ष और बढ़ा दी गई है. देश में 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त राशन की व्यवस्था कोई सामान्य बात नहीं है. अर्थव्यवस्था पर कितना अधिक बोझ पड़ता होगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है.

नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट (NFSA) के तहत राशन कार्ड धारकों को एक से तीन रुपए किलो के बीच गेहूं-चावल उपलब्ध कराया जाता था. लेकिन 2020 में जब कोविड महामारी फैली तब कोरोना के साथ ही तय हुआ था कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY) के तहत गरीबों को सरकार फ्री राशन देगी. उस समय यह व्यवस्था सिर्फ कोरोना महामारी तक थी. लेकिन फिर इसको रेवड़ियों की तरह बांटा जाने लगा. NFSA और PMGKAY को परस्पर मिला दिया गया.

अब शनिवार को प्रधानमंत्री ने छत्तीसगढ़ में घोषणा की कि फ्री राशन बांटने की मियाद पांच वर्ष और बढ़ा दी गई है. देश में 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त राशन की व्यवस्था कोई सामान्य बात नहीं है. अर्थव्यवस्था पर कितना अधिक बोझ पड़ता होगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है.

मुफ्त राशन पाने वाले 81 करोड़ से हुए ऊपर

ताजा आंकड़ों के अनुसार ऐसे लाभार्थियों की संख्या अब बढ़कर 81.35 करोड़ हो गई है. NFSA की शुरुआत 2013 में मनमोहन सरकार ने की थी. इस योजना के अनुसार राशन कार्ड धारकों को एक रुपए और तीन रुपए प्रति किलो के बाद गेहूं-चावल मिलने की बात थी. इसके तहत प्रति व्यक्ति 5 किलो आनाज महीने में मिलना तय था. फिर नरेंद्र मोदी सरकार अंत्योदय योजना लाई, जिसमें 35 किलो आनाज की सीमा निर्धारित की गई.

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फ्री राशन वितरण की योजना दिसंबर में समाप्त होने वाली थी. अब प्रधानमंत्री ने इसे 5 वर्ष के लिए और आगे बढ़ा दिया है. पौने दो लाख करोड़ के इस राहत पैकेज की शुरुआत 30 जून 2023 को की गई थी. निश्चित तौर पर इस योजना के चलते गरीब परिवारों को कोरोना से लड़ने में बहुत मदद मिली थी.

मजदूरों की कमी से उद्योगों को झटका

कोरोना में जो गरीब परिवार अपना रोजगार खो बैठे थे, उन्हें इस योजना के जरिए जीने का सहारा भी मिला. लेकिन इसके जितने अधिक फायदे हैं, उससे कहीं अधिक नुकसान भी. एक तो इस योजना के चलते श्रमिक संख्या में भारी कमी आई. शहरों में मजदूर नहीं मिलते, क्योंकि गांवों में फ्री राशन मिलने के कारण वे लोग मजदूरी करने आते नहीं. और यदि आए भी तो टिकते नहीं.

मजदूरों की कमी से छोटे और मझोले उद्योगों को भारी झटका लगा है. इसी के साथ मजदूरों की कार्य कुशलता में भी कमी आई है. भारत आज जो विश्व कि पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बना है, उसकी वजह मजदूरों की त्वरा और कौशल रहा है. लेकिन यदि 141 करोड़ की आबादी में 81 करोड़ आदमी घर बैठ जाएगा, तो उत्पादन ठप होगा ही.

चीन ने बढ़ती आबादी को बनाया समृद्धि का हथियार

बढ़ती आबादी से अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का नुस्खा चीन ने बताया था. उसने अपने मजदूरों के बूते विश्व में सस्ते माल की आपूर्ति की. वियतनाम, थाइलैंड, बांग्लादेश ने उससे यह कला सीखी और भारत ने भी उत्पादन बढ़ाया. लेकिन फ्री राशन वितरण ने इस उत्पादन पर विराम लगा दिया. विश्व बाजार में आज भारतीय मजदूरों की कारीगरी नहीं दिखती.

इसके विपरीत चीन, थाइलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलयेशिया और बांग्लादेश के मजदूरों का बनाया माल वहां छाया रहता है. कनाडा और अमेरिका तथा पश्चिमी देश व अरब मुल्कों के बाजार में यहां के मजदूरों का माल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. बड़े-बड़े ब्रांड भले वे अमेरिका के हों या जर्मनी, फ्रांस अथवा ब्रिटेन के, अक्सर इन्हीं मुल्कों के मजदूरों द्वारा बने होते हैं. भारतीय मजदूर अब पिछड़ रहा है.

मध्य वर्ग के बूते मुफ्तखोरी कब तक

देश के मध्य वर्ग के बूते कब तक करोड़ों लोगों को फ्री राशन मिलेगा. भोजन की गारंटी देना किसी भी जन कल्याणकारी सरकार की एक अहम जिम्मेदारी है. परंतु उसके लिए मध्यवर्ग की जेब काटना भी कोई समझदारी नहीं है. फ्री राशन और हर चीज में सब्सिडी देने से होता यह है, कि करोड़ों की आबादी नाकारा बन जाती है. लेकिन हमारे देश में सरकारों ने फ्री भोजन जैसी योजनाएं वोट पाने के लिए की जाती रही हैं. जबकि होना चाहिए सबको शिक्षा और स्वास्थ्य देने की गारंटी.

हमारे यहां आजादी के फौरन बाद से कुछ लोगों को सब्सिडी दे कर उन्हें राजनीतिक दलों का मुखापेक्षी बना दिया गया. मुफ्त और सस्ते भोजन की शुरुआत दक्षिण भारत (आंध्र प्रदेश) में एनटी रामराव ने की थी. इसके बाद इसको लपक लिया जय ललिता ने.

शिक्षा और स्वास्थ्य में सब पीछे

फिर तो होड़ लगने लगी कि कौन कितना आवश्यक वस्तुओं की कीमतें कम करेगा. आज की तारीख में हर राजनीतिक दल इस तरह की रेवड़ियां बांटने की घोषणा कर रहा है. राज्य सरकारों ने तो हद कर रखी है. यह भी मुफ्त वह भी मुफ्त. यहां तक कि कुछ राजनीतिक दल तो तीर्थयात्रा भी मुफ्त करवा रहे अथवा सब्सिडी दे रहे हैं.

इस तरह के पॉप्युलर नारे उछाल कर राजनीतिक दल चुनाव तो जीत जाते हैं, लेकिन जब अपने चुनाव पूर्व वायदों पर अमल की बात आती है तो वे केंद्र के समक्ष खड़े हो जाते हैं. जरूरत इस बात की है कि लोगों को काम दो. उनके लिए रोजगार के अवसर मुहैया करवाओ. अगर सब्सिडी देनी है तो स्वास्थ्य और शिक्षा में दो. लेकिन किसी भी राजनैतिक दल ने यह साहस नहीं दिखाया कि इन बुनियादी बातों पर सोचे.

विदेशी कम्पनियां भागने लगीं

इसीलिए अब यह एक रामबाण नुस्खा बन गया है कि मुफ्त राशन, सस्ते भोजन की घोषणाएं करो. जब किसी को मुफ्त भोजन मिलेगा तब वह काम क्यों करेगा? देश में पहले तमाम विकसित देशों की कम्पनियां आकर अपने कारखाने लगाती थीं. इससे मजदूरों को बेहतर रोजगार मिलता था और उनकी जीवन शैली तथा सोच ऊपर उठती थी. चूंकि विकसित देशों की आबादी कम है और मजदूर बहुत महंगे.

इसलिए ये कंपनियां भारत जैसे विशाल आबादी वाले देशों की तरफ आती थीं. स्केचर्स, क्लार्क और डेनिम जैसी कंपनियां भले अमेरिका, यूरोप की हों पर इनका उत्पाद बना बांग्लादेश, चीन या वियतनाम का होता है. यह वह मजदूर शक्ति का कमाल है, जो अकुशल है और जिसे रोजगार चाहिए. ये कम्पनियां उन्हें पर्याप्त पैसा देती हैं. इससे देश में विदेशी मुद्रा आती है.

मुफ्त राशन से बढ़ी कामचोरी

लेकिन मुफ्त राशन से यही मजदूर कामचोरी करने लगता है. उसके लिए काम हो या न हो मुफ्त भोजन तो है ही. शहरों में छोटे कारखानों के लिए अब इफरात में मजदूर नहीं मिलते. क्योंकि अब गांव कोई छोड़ना नहीं चाहता. गांव में रोजगार हो या न हो भोजन की व्यवस्था तो है. हर राजनीतिक दल यही कर रहा है.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में तो परस्पर होड़ मची है कि मुफ्त भोजन देने में कौन किससे आगे. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उत्तर भारत के वोटरों को मुफ्तखोरी की ऐसी आदत डाली कि उसके बूते वे लगातार दो बार से दिल्ली में एकछत्र राज कर रहे हैं. उनकी देखादेखी अब हर राजनीतिक दल सीख चुका है, कि कैसे मुफ्तखोरी का लालच दे कर वोटर को पटाया जाए.

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