मुशर्रफ पाकिस्तान के आखिरी सैन्य तानाशाह क्यों हो सकते हैं?
कारगिल ही नहीं अपने करियर में हमेशा मुशर्रफ में केवल हारने वाली प्रवृति ही दिखी. जनरल मुशर्रफ ने कभी जीवन में सैन्य जीत नहीं देखी. ( यहां पढ़ें संदीप उन्नीथन का लेख)
पाकिस्तान के पूर्व सैन्य तानाशाह और राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ का लंबी बीमारी के बाद 5 फरवरी को दुबई में निधन हो गया. वह सैन्य तानाशाहों की चौकड़ी में अंतिम रहे जिनका मानना था कि अराजकता के बीच देश ने उन्हें सब कुछ सही करने के लिए शीर्ष पर बैठाया है. यह समझा सकता है कि कैसे इन जनरलों में से प्रत्येक ने बगैर रक्तपात के तख्तापलट कर जनता द्वारा चुनी गई सरकारों को उखाड़ फेंका और पाकिस्तान के 75 साल में से आधे से अधिक समय तक सीधे शासन किया. फिर भी पाकिस्तान का कोई भी तानाशाह खुशी-खुशी सेवानिवृत्त नहीं हुआ है.
इसके बजाय चार में से तीन तानाशाहों ने अपने आखिरी साल अपमान में बिताए. जिन पर वह राज करते थे उन्हीं ने उन्हें तिलांजलि दे दी. मगर यह सब अच्छे के लिए हुआ. इन जनरलों ने सत्ता से बेदखल होते वक्त देश को सत्ता संभालने के वक्त से भी बुरी स्थिति में छोड़ा.
राजद्रोह के मामले में सुनाई गई थी मौत की सजा
फील्ड मार्शल अयूब को भारत के साथ 1965 के युद्ध में हार के बाद आर्थिक बर्बादी और राजनीतिक अस्थिरता के कारण 1968 में हटा दिया गया. अयूब के शागिर्द जनरल याह्या खान ने 1971 में अपना आधा देश खो दिया. उनका सैन्य सम्मान छीन लिया गया और नौ साल बाद एक तरह से हाउस अरेस्ट की स्थिति में उनकी मृत्यु हुई. 1988 में एक अनसुलझी विमान दुर्घटना में दर्दनाक मौत मरने वाले जनरल जिया अकेले हैं जो इस बदनामी से बच पाए. जनरल मुशर्रफ भी देश को संभाल नहीं पाये. आठ साल तक अपने देश पर शासन करने के बाद 2008 में उन्हें राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया. वह आम चुनावों में हिस्सा लेने के लिए 2013 में अपने लंदन के निर्वासन से लौटे मगर उन्हें चुनाव में भाग लेने से अयोग्य घोषित कर दिया गया.
उन्हें नवाब बुगती और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्याओं का दोषी ठहरा दिया गया. अदालतों ने उन्हें संविधान को निलंबित रखने के लिए भी दोषी ठहराया. 2016 में न्यायपालिका ने उन्हें इलाज के लिए दुबई जाने की अनुमति दी. 2019 में उन्हें राजद्रोह के आरोप में उनकी अनुपस्थिति में मौत की सजा सुनाई गई जिसे बाद में रद्द कर दिया गया.
कारगिल युद्ध के सूत्रधार थे मुशर्रफ
उन्हें 1999 के कारगिल संघर्ष के पीछे का मुख्य खुराफाती दिमाग माना गया. पाकिस्तानी सेना में ऑपरेशन ‘कोह पायमा’ (पहाड़ों की पुकार) के नाम से मशहूर यह एक दुस्साहसिक योजना रही जिसमें जम्मू और कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तानी सेना ने घुसपैठ कर उन चौकियों पर कब्जा जमा लिया जिन्हें भारतीय सेना ने सर्दियों के महीनों में खाली किया था. मुशर्रफ को उम्मीद थी कि वह इस कदम से सियाचिन ग्लेशियर के लिए भारत का एकमात्र सड़क संपर्क काट देंगे. ऑपरेशन केपी सामरिक रूप से शानदार कदम रहा लेकिन रणनीतिक रूप से बुरी तरह से त्रुटिपूर्ण.
जनरल मुशर्रफ के डेप्युटी में से एक लेफ्टिनेंट जनरल महमूद अहमद बॉलीवुड के खलनायक की तरह एक प्री-ऑपरेशन ब्रीफिंग में बोलते सुने गए: “अक्टूबर आएगा और हम सियाचिन में मिलेंगे ठंड में भूख से मारे गए भारतीयों के शवों को बाहर फेंकते हुए.
जनरल मुशर्रफ ने भारत की प्रतिक्रिया को कम करके आंका. भारतीय सेना ने दो महीनों में पैदल सेना, तोपखाने और वायु सेना का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान को माकूल जवाब दिया. ठंड में भूख से मरने वाले जवान पाकिस्तान के नॉर्दर्न लाइट इंफेंट्री के थे जिन्हें दफनाने का जिम्मा भारतीय सेना पर छोड़ दिया गया था.
1971 में फूट- फूट कर रो थे मुशर्रफ
कारगिल ही नहीं अपने करियर में हमेशा मुशर्रफ में केवल हारने वाली प्रवृति ही दिखी. जनरल मुशर्रफ ने कभी जीवन में सैन्य जीत नहीं देखी. 1965 के युद्ध में वह भारतीय सेना द्वारा पराजित खेमकरण सेक्टर में एक डिवीजन का हिस्सा थे. 1971 में जब पाकिस्तानी सेना ने समर्पण किया तब वह फूट-फूट कर रो पड़े थे. 1980 के दशक की शुरुआत में एक ब्रिगेडियर के रूप में वह भारतीय सेना को सियाचिन ग्लेशियर से हटाने में विफल रहे थे.
उन्हें आर्टिलरी रेजिमेंट में नियुक्त किया गया. बाद में वह स्पेशल सर्विजेस ग्रुप (एसएसजी) में शामिल हो गए जो पाकिस्तान में भारत के पैरा / एसएफ कमांडो के समकक्ष है. इन कमांडो को सामरिक रणनीति को मूर्त रूप देने के लिए तैयार किया जाता है वह साहसिक छापे मारते हैं और घात लगाकर हमला करते हैं. लेकिन, दुर्भाग्य से युद्ध रणनीतिकार नहीं जीतते. फिर मुशर्रफ कभी अपने सैन्य करियर में बेहतर साहस नहीं दिखा पाये. कारगिल युद्ध के दौरान तत्कालीन भारत के सेना प्रमुख जनरल वीपी मलिक ने उन्हें ऐसा कप्तान बताया जो कभी अपने रैंक से ऊपर का काम नहीं कर पाया. “एक कप्तान या एक मेजर के रूप में मैं उन्हें 10 में से 8 या 9 अंक दूंगा, लेकिन एक जनरल के रूप में 10 में से केवल 3.” सामरिक विश्लेषक के सुब्रह्मण्यम ने जनरल की 2006 की वाल्टर मिटी-एस्क्यू आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ को पढ़ने के बाद मुझे चुटकी लेते हुए बताया: “गोएबल्स भी मुशर्रफ से काफी कमजोर था.”
कमांडो जनरल को हमेशा जीत की तलाश ही रही. 1999 के अंत में मुशर्रफ ने मार्शल लॉ प्रशासक बनने के लिए कमजोर तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को हटा दिया. मुशर्रफ के राज में पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर में आत्मघाती आतंकियों की मदद से कार्रवाई काफी तेजी कर दी. 2001 में कश्मीर में आतंकवादियों ने काफी नुकसान पहुंचाया और 1,600 से अधिक नागरिकों और सुरक्षा बलों को मार डाला. उस साल मुशर्रफ का शांतिदूत वाला चेहरा सामने आया जब उन्होंने कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए आगरा शिखर सम्मेलन में चार सूत्रीय योजना की पेशकश की.
भारत ने इस योजना को खारिज कर दिया. वह ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिन पर भरोसा किया जा सके. उससे बाद 9/11 के आतंकवादी हमलों ने पाकिस्तान को एक बार फिर अमेरिका के ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ में एक सबसे अग्रणी सहयोगी बना दिया. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को मुशर्रफ ने आश्वस्त किया कि इस्लामी कट्टरवाद के खिलाफ युद्ध में वह अमेरिका के सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी साबित होंगे. 9/11 के ठीक तीन महीने बाद दिसंबर में पाकिस्तानी आतंकवादियों ने भारतीय संसद पर हमला किया. वह सफल नहीं हो सके मगर इस वारदात ने दोनों देशों को युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया. मुशर्रफ के तहत पाकिस्तान डबल गेम खेलता रहा. वह आतंक के खिलाफ लड़ाई में सहयोगी भी रहा और आतंक फैलाने वाला देश भी बना रहा. 2021 तक पाकिस्तान में विश्व स्तर पर प्रतिबंधित 12 आतंकवादी समूह मौजूद थे.
2021 में अमेरिकी संसद की एक रिसर्च सर्विस रिपोर्ट में पांच तरह के आतंकियों का उल्लेख किया गया पाकिस्तान के वैश्विक स्तर के आतंकी, अफगानिस्तान के लिए तैयार आतंकी, भारत के खिलाफ जिहाद के लिए आतंकी, सांप्रदायिक समूह और पाकिस्तान के लिए तैयार गुट.
‘भारतीय मीडिया इस शख्स को इतना सम्मान क्यों देता है’
मैं 2009 में नई दिल्ली में इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में एक बार जनरल मुशर्रफ से मिला. यह मुलाकात उनके निष्कासन के एक साल बाद हुई. पूर्व तानाशाह दोबारा सुर्खियों में आया और वह यह तय मान रहा था कि पाकिस्तान में एक बार फिर से उसकी सत्ता में वापसी तय है. जब वह बात कर रहा था तब उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति साफ झलकती थी. वह सीधे आंखों में देख कर बात करता था जिसमें हास्य के पुट के साथ एक संक्रामक हंसी भी होती थी. यह साफ दर्शाता है कि उन्होंने पश्चिमी देशों को क्यों और कैसे प्रभावित किया. फिर भी वह अपने देश पाकिस्तान में बुरी तरह से अलोकप्रिय थे. एक पाकिस्तानी पत्रकार मित्र ने मुझसे पूछा कि भारतीय मीडिया इतने बदनाम शख्स को इतना सम्मान क्यों देता है.
मुशर्रफ ने अपनी तमाम नाकामियों के बावजूद पाकिस्तान पर एक बड़ा एहसान किया. बेहद अलोकप्रिय तानाशाह के रूप में उन्होंने सीधे तौर पर सत्ता पर कब्जा करने का जोखिम उठाया. नहीं तो पाकिस्तान में सेना को सिविल सरकारों को हटाने की क्या जरूरत है जब सिविलियन सरकारों में भी पाकिस्तानी सेना की ही चलती है.