उत्तर भारत के खिलाफ सेंथिल कुमार का विवादित बयान, कांग्रेस का ही तो विरोध है

उत्तर भारत के खिलाफ सेंथिल कुमार का विवादित बयान, कांग्रेस का ही तो विरोध है

डीएमके के सांसद सेंथिल कुमार के बयान पर सियासी हंमागा जारी है. हालांकि गो मूत्र वाले बयान पर उन्होंने माफी मांग ली है लेकिन यह बयान पूरी तरह से राजनीतिक था. देखा जाये तो हाल के समय में दक्षिण में उत्तर भारतीयों के बूते बीजेपी और कांग्रेस धीरे-धीरे अपना प्रभाव बढ़ाती जा रही है. ऐसे में इस तरह के विवाद DMK के नेता करें या कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम के पुत्र कार्ति चिदंबरम, वे अधिक दिनों तक ऐसा कर पाएंगे, इसमें संदेह है.

‘भक्ती द्राविड़ ऊपजी, लाये रामानन्द. प्रकट करी कबीर ने सात द्वीप नौ खंड’ उत्तर भारत में मध्य काल का भक्ति आंदोलन उसी दक्षिण से उत्तर भारत आया था, जिसके बीच DMK फूट डलवाना चाहती है. अब यह किसके इशारे पर हो रहा है, यह भी कोई दबी-ढकी बात नहीं रह गई है. DMK सांसद सेंथिल कुमार ने जिस तरह से उत्तर वालों को सड़ी-गली उपमाओं से नवाज़ा, उससे लगता है कि वे कुछ ज़्यादा ही आत्म मुग्ध हैं. और यह आत्म मुग्धता सिर्फ़ उनमें ही नहीं बल्कि पूरी DMK में है. उनके पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे उदय स्टालिन भी उत्तर भारत को इंगित करते हुए सनातन परंपरा की तुलना डेंगू और कोरोना से कर चुके हैं. DMK पार्टी के इस तरह के विचारों से प्रतीत होता है, जैसे DMK भारत को एक राष्ट्र नहीं बल्कि खंडित राष्ट्र समझता है.

DMK को भारत की उस समृद्ध परंपरा का ज्ञान नहीं है, जो ईस्वी संवत से पहले से भारत में चली आ रही है. वैदिक, श्रमण और बौद्ध संत हज़ारों वर्ष से उत्तर और दक्षिण के बीच सेतु बनते रहे हैं. अगस्त्य वह पहले ऋषि थे, जो विंध्य पार कर उत्तर से दक्षिण गये थे. वे फिर लौटे ही नहीं और उनके बात निरंतर ऋषि-मुनि दक्षिण जाते रहे. एक कथा है, कि महर्षि अगस्त्य जब दक्षिण जाने के लिए विंध्य पर्वत पहुंचे तो उनके प्रताप से विंध्याचल पर्वत सशरीर उनके समक्ष दंडवत मुद्रा में उपस्थित हो गया. महर्षि ने कहा, जब तक मैं दक्षिण से वापस न आऊं तब तक यूं ही दंडवत रहना. अगस्त्य दक्षिण से कभी आए ही नहीं. विंध्य पार करने का यह पहला आख्यान हमारी श्रुति परंपरा में उपलब्ध है. इसके बाद तो उत्तर से दक्षिण जाने की लीक बन गई. इस दौरान दक्षिण से उत्तर आने के भी कई आख्यान उपलब्ध हैं.

दक्षिण भारत में गाय-बैल की क्या है परंपरा?

आज जिस तरह से दक्षिण के DMK सांसद अक्सर उत्तर वालों को गाय, गोबर और गोमूत्र पीने वाले जैसी उपमा देते हैं, वे शायद भूल जाते हैं, कि वैष्णव परंपरा दक्षिण भारत से ही उत्तर की तरफ आई. उस परंपरा से ही उत्तर में गाय-बैल का सम्मान बढ़ा. आज भी विंध्य पार आंध्र के प्रकाशम ज़िले के बैल सर्वोत्तम माने जाते हैं. इसी तरह गीर की गाएं. दुनिया में सबसे ज़्यादा समय तक अपना राज क़ायम रखने वाले चोल साम्राज्य के समय शिव के वाहन नंदी की पूजा शुरू हुई. पूरे दक्षिण भारत में शिव और उनके वाहन नंदी के मंदिर मिल जाएंगे. जिन लोगों ने बंगलुरू का बुल टेम्पल देखा होगा, वे शायद जानते होंगे कि नंदी की विशाल मूर्ति उस मंदिर में स्थापित है. शिव का स्थान उत्तर में हिमालय है किंतु उनकी पूजा दक्षिण में सर्वाधिक है. इसी तरह विजय नगर साम्राज्य ने गोविंद मंदिरों की स्थापना की.

केरल के तट को परशुराम भूमि कहा जाता है. और जिस मंदराचल पर्वत पर परशुराम द्वारा तपस्या करने का उल्लेख सनातन पुराणों में है, वह तिरुअनंतपुरम और कन्याकुमारी के मध्य स्थित है. अर्थात् दक्षिण और उत्तर के बीच इस क़दर प्रगाढ़ संबंध हैं कि दोनों को अलग किया नहीं जा सकता. अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चालों से भाषा, धर्म, जातिगत भेद-भाव की कूटनीति शुरू की थी, उसी का भुगतान आज देश कर रहा है. DMK जैसी क्षेत्रीय अहंकार वाली पार्टियों का उदय भी अंग्रेजों की उसी भेदभाव बढ़ाने वाली नीति के तहत हुआ है. इसलिए उनके निशाने पर उत्तर रहता है. अगर वे प्राचीन तमिल साहित्य को समझते होते तो शायद ऐसी बयानबाजी न करते. सेंथिल कुमार और उदय स्टालिन ने तमिल कवि कम्बन द्वारा लिखी गई रामायण भी नहीं पढ़ी है, जिसकी पूरे देश में वाल्मीकि रामायण जैसी प्रतिष्ठा है.

दक्षिण के कर्नाटक में बीजेपी चला चुकी है सरकार

जहां तक भाजपा के लिए दक्षिण के द्वार बंद करने की बात कही जाए तो जाहिर है, अपने अहंकार में डूबे DMK नेता क्यों भूल गए कि अभी कुछ माह पूर्व तक कर्नाटक में भाजपा की सरकार थी. पुद्दुचेरी में भाजपा की मदद से ही सरकार चल रही है. तेलांगना में उसे इस बार 14 प्रतिशत वोट मिले हैं और उसके 8 विधायक जीते हैं. हिंदी के अंध विरोध के बहाने DMK पार्टी उत्तर भारत के लोगों का अपमान कर रही है. सेंथिल कुमार उन्हें गोमूत्र पीने वाला बताते हैं तो उदय स्टालिन पानी-पूरी बेचने वाला. सच तो यह है, कि दक्षिण में उत्तर के बहुत सारे लोग जा कर बसे हैं. और यह बसावट कोई आज से नहीं बल्कि पिछले डेढ़ सौ वर्षों से है. पहले तो उत्तर के मारवाड़ी व्यवसायी तब के मद्रास और आज के चेन्नई जा कर बसते थे. वहाँ का सौकर (साहूकार) पेट इलाक़ा तो पूरा का पूरा मारवाड़ी इलाक़ा रहा है. एक जमाने में उत्तर भारतीय इसी इलाक़े में बसते थे.

पर इधर कुछ वर्षों से उत्तर प्रदेश और बिहार के मज़दूर तथा कारीगर भी सुदूर दक्षिण के तटीय इलाक़ों में बसने लगे हैं. दिहाड़ी मज़दूर और छोटे व्यापारी तथा कारीगर भी जाने लगे हैं. आज केरल और तमिलनाडु के तटीय इलाक़ों में नाई, मोची, परचून की दूकान वाले उत्तर भारत से गए हुए मिलते हैं. इन लोगों ने वहाँ मकान भी बनवा लिए हैं. उत्तर भारतीय खाने के ढाबे भी यहाँ खूब खुलते जा रहे हैं. इसकी वजह यह है, कि जैसे-जैसे निजी शिक्षा संस्थान यहाँ खोले जा रहे हैं तो उनमें भारी-भरकम फ़ीस ले कर उत्तर भारत के छात्रों को इंजीनियरिंग तथा मेडिकल की पढ़ाई के लिए बुलाया जाता है. इन छात्रों को रहने के लिए PG चाहिए और भोजन भी, जो यही उत्तर भारतीय छोटे व्यापारी, कारीगर आदि मुहैया कराते हैं. इसलिए इन लोगों के पास भी कमाई के नए स्रोत खुलते जा रहे हैं. इस अनायास आई समृद्धि से अब ये लोग दक्षिण में स्थायी निवास चाहते हैं.

दक्षिण के केरल में तो वाम सरकार रही सत्ता पर

ये उत्तर भारतीय अब वहां मतदाता बन रहे हैं. इससे यहां के क्षेत्रीय राजनीतिक दल परेशान हैं. ख़ासकर DMK क्योंकि उसकी पूरी राजनीति उत्तर के और हिंदी के विरोध पर आधारित है. सुदूर दक्षिण के राज्य हैं, तमिलनाडु, केरल और पुद्दूचेरी. इनमें भी केरल में DMK का कोई आधार नहीं रहा क्योंकि वहां पर आजादी के पहले से ही सोशलिस्टों का असर रहा है. केरल का तटीय क्षेत्र त्रावणकोर स्टेट (रियासत) के अधीन था. जब आज़ादी के बाद इस स्टेट के प्रधानमंत्री सर पीसी रामास्वामी ने इस रियासत के भारत संघ में विलय से इनकार कर दिया तो उन पर एक सोशलिस्ट युवा ने जानलेवा हमला किया था. घबरा कर रामास्वामी ने विलय पर दस्तख़त कर दिए. केरल राज्य का पुनर्गठन 1956 में हुआ और उसके बाद जैसे ही चुनाव हुए, यहां पर सीपीआई के ईएमएस नमबूदरीपाद की सरकार बनी, जिसे केंद्र की जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने गिरवा दिया था. कम्युनिस्ट यहाँ की बड़ी ताक़त रहे हैं और यहाँ पर उनकी अथवा कांग्रेस की सरकारें ही रहीं.

आंध्र में टीडीपी के उदय के पूर्व सदैव कांग्रेस की सरकार रही. तेलांगना राज्य आंध्र को काट कर 2 जून 2014 को बना था. तब से वहाँ BRS के के. चंद्रशेखर राव की सरकार थी. दो बार लगातार मुख्यमंत्री रहने के बाद 3 दिसंबर 2023 को उनकी सरकार चुनावों में खेत रही और यहाँ कांग्रेस की सरकार बनी. दक्षिण के एक अन्य राज्य कर्नाटक की स्थिति अलग रही है. यहाँ पर कोई क्षेत्रीय दल बहुत ताकतवर कभी नहीं रहा. देवीगौड़ा का जद(स) आख़िर जनता दल से ही टूट कर बना था. हालाँकि यहाँ 1983-88 में राम कृष्ण हेगड़े ने वहाँ पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी. किंतु यह जनता पार्टी का ही एक गुट JNP था. यहाँ कई बार JDS की सराकर रही और दो बार भाजपा की भी सरकार रही. लेकिन ये सभी दल कमोबेश राष्ट्रीय ही रहे. आज जब क्षेत्रीय दल कमजोर हो रहे हैं तब दक्षिण में लगभग सभी जगह कांग्रेस या भाजपा विकल्प बनती जा रही है.

क्या है डीएमके की इस राजनीति का राज?

ऐसे समय DMK की घबराहट स्वाभाविक है. क्योंकि अकेला तमिलनाडु ही ऐसा राज्य है, जहां द्रविड़ पार्टियां ही अधिपत्य जमाए हैं. 1967 से वहाँ द्रविड़ पार्टियों का ही राज रहा है. हालाँकि इन द्रविड़ पार्टियों को भी राष्ट्रीय दल से गठबंधन करते रहना पड़ता है, जो संकेत है कि यहाँ पर राष्ट्रीय दल एक संतुलन रखते हैं. पहले यह गठबंधन कांग्रेस से होता था और फिर अटल बिहारी वाजपेयी से AIADMK की जय ललिता और DMK के करुणानिधि ने बारी-बारी से किया था. आज भी वे कांग्रेस से गठबंधन बनाते हैं. ऐसे में अगर उत्तर भारत के लोग यहाँ बसते रहे तो एक दिन DMK जैसी क्षेत्रीय विचारधारा वाली पार्टियाँ ग़ायब हो जाएँगी. इसीलिए कभी उदय स्टालिन तो कभी सेंथिल कुमार जैसे नेता सनातन परंपरा और सनातन धर्म पर हमले करते ही रहेंगे.

इन हमलों के ज़रिए ये लोग उत्तर भारत और हिंदी के प्रति एक विरक्ति पैदा करना चाहते हैं. तमिल लोग हिंदी के विरोधी 1937 से हैं, जब मद्रास प्रेसीडेंसी में सी. राजगोपालाचारी की कांग्रेस सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाने की शुरुआत की थी. इस प्रयास का जस्टिस पार्टी के नेता ईवी राम स्वामी नायकर ने भारी विरोध किया था. यही जस्टिस पार्टी बाद में द्रविड़ मुन्नेत्र कडगम (DMK) बन गई. आज़ादी के बाद 1965 में DMK ने हिंदी का ऐसा विरोध किया कि उत्तर भारतीय व्यवसायी तथा मज़दूर वहाँ से भाग निकले. लेकिन आज स्थिति भिन्न है. चेन्नई आज एक साइबर सिटी है और हर प्रांत के लोग वाहन रहते हैं. तमिलनाडु के लोग पूरे देश में नौकरी और व्यवसाय के लिए जाते हैं. ऐसे में हिंदी विरोध या उत्तर विरोध अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारना है.

लेकिन यदि वे विरोध न करें तो इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा और कांग्रेस धीरे-धीरे अपना प्रभाव उत्तर भारतीयों के बूते वहाँ फैलाते जाएँगे. इसलिए यह सारा विरोध राजनीतिक है. भले वह DMK के नेता करें या कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम के पुत्र कार्ति चिदंबरम करें. वे अधिक दिनों तक ऐसा नहीं कर पाएँगे. अब कांग्रेस के लिए उन्होंने दुविधा पैदा कर दी है. यदि कांग्रेस DMK से गठबंधन बनाये रही तो भविष्य में वह उत्तर को और खो देगी. तथा यदि गठबंधन तोड़ें तो दक्षिण में वह DMK की सहानुभूति खो देगी. कांग्रेस की ख़ाली जगह को भाजपा फ़ौरन भर लेगी. दूसरी तरफ़ यदि DMK उत्तर का विरोध नहीं करेगी तो उसका तो कोई नामलेवा न बचेगा.

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