तिलक लगाओ और पैसे लो…ब्याज देने की भी टेंशन नहीं, आदिवासी समाज की क्या है नोतरा प्रथा?

राजस्थान के उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ के आदिवासी समुदाय 'नोतरा' परंपरा का पालन करते आ रहे हैं. इसमें किसी भी आदिवासी परिवार में विवाह आयोजित होने या अन्य जरूरतों पर सामुदायिक सहयोग दिया जाता है.
आज के समय में बैंकिंग व्यवस्था बहुत आधुनिक हो गई हैं. घर बैठ-बैठे लोगों के बैंक के ज्यादातर काम हो जाते हैं, लेकिन इस आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था में लोगों को कर्ज लेने के लिए दस्तावेज, गारंटी और ब्याज की टेंशन होती है. बिना दस्तावेज और गारंटी के लोगों को बैंक से कर्ज नहीं मिल पाता, लेकिन राजस्थान में परस्पर सहयोग की सामाजिक परंपरा जिंदा है.
ये परंपरा पूरी तरह भरोसे और भागीदारी पर टिकी है. इसे ‘नोतरा’ परंपरा के नाम से जाना जाता है. ये परंपरा राजस्थान के उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ के आदिवासी समुदाय की है. इसमें किसी भी आदिवासी परिवार में विवाह आयोजित होने या अन्य जरूरतों पर सामुदायिक सहयोग दिया जाता है. ये ‘नोतरा’ परंपरा किसी सहयोग बैंक से कम नहीं है. खासकर इस राशि पर कोई ब्याज नहीं लिया जाता है.
क्या है ‘नोतरा’ का मतलब
‘नोतरा’ का मतलब निमंत्रण है. इस परंपरा के तहत जब किसी आदिवासी परिवार में कोई आयोजन या आवश्यता पड़ती है, तो उस परिवार का मुखिया पंचों को ‘नोतरा’ प्रस्ताव देता है. पंच उस परिवार के ‘नोतरा’ का दिन तय करते हैं. ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि किसी अन्य परिवार के ‘नोतरा’ से टकराव न हो. नोतरे की तारीख पर गांव का हर एक परिवार संबंधित व्यक्ति के घर जाकर भोजन करता है.
इस परंपरा में छोटे-बड़े का भेद नहीं
साथ ही गांव के लोग मुखिया को तिलक लगाते हैं और अपनी क्षमता के अनुसार नकद राशि या वस्तु सहयोग के रूप में देते हैं. इस राशि का लेखा-जोखा गांव के बड़े-बूढ़े या पढ़े-लिखे व्यक्ति को सौंप दिया जाता है. संबंधित परिवार के मुखिया को आयोजन या उसके दूसरे दिन पूरी राशि दे दी जाती है. इस परंपरा में छोटे-बड़े का भेद नहीं किया जाता. ये सभी के लिए आवश्यक है.
बता दें कि ‘नोतरा’ की परंपरा राजस्थान के साथ-साथ मध्य प्रदेश और गुजरात के सीमावर्ती इलाकों में आदिवासी अंचलों पर भी चलती आ रही है.