UP Assembly Election: कुर्मी क्षत्रपों की ‘घर में ही घेराबंदी’! KP और SP मौर्य का वजूद तय करेगा ये चुनाव
लोग सवाल पूछ रहे हैं कि जब पिछड़ों की सियासत करते हैं, पिछड़ों के हित का दावा करते हैं, पिछड़ों की आवाज़ बुलंद करते हैं, तो फिर ख़ुद को सेफ़ सीट के पैमाने पर क्यों आज़माना चाहते हैं? बहरहाल, सेफ़ सीट होने के बावजूद इस बार स्वामी प्रसाद मौर्य और केशव प्रसाद मौर्य की राह में नई तरह की चुनौतियां हैं.
कुशीनगर से कौशाम्बी के बीच क़रीब चार सौ किलोमीटर की दूरी है, लेकिन दोनों जगह एक जैसी खलबली मची है. क्योंकि, दोनों जगह एक बात समान है. कुशीनगर (Kushinagar) में स्वामी प्रसाद मौर्य (Swami Prasad Maurya) और कौशाम्बी में केशव प्रसाद मौर्य (Keshav Prasad Maurya) का राजनीतिक वजूद कसौटी पर है. कौशाम्बी की सिराथू विधानसभा में हलचल ज़्यादा है. क्योंकि, इस बार यूपी सरकार के डिप्टी सीएम और अपनी जन्मस्थली को केशव प्रसाद मौर्य ने एक बार फिर सियासी कर्मस्थली बनाया है. सिराथू में कुर्मी वोटबैंक के दम पर हुंकार भरने वाले केपी मौर्य के सामने इस बार दोतरफ़ा चुनौती है.
उनका पहला इम्तिहान ये है कि 2012 वाला करिश्मा दोबारा करके दिखाना होगा. 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पहली बार सिराथू विधानसभा BJP के खाते में डाली थी. इसके बाद 2014 में इलाहाबाद में फूलपुर लोकसभा से सांसद चुने गए, तो सिराथू सीट छोड़नी पड़ी. 2017 में भी BJP के शीतला प्रसाद ने सिराथू में एक बार फिर कमल खिलाया था. दूसरा इम्तिहान ये कि उनका कुर्मी वोटबैंक बांटने के लिए कुर्मियों के सबसे बड़े नेता कहलाने वाले सोनेलाल पटेल की बेटी पल्लवी पटेल मुक़ाबले में हैं.
2012 का जादू दोहरा पाएंगे केशव मौर्य?
अब केशव मौर्य के सामने 2012 का जादू दोहराने की चुनौती ऐसे समय में है, जब उनके सामने सबसे बड़ा सवाल ये है कि वो ख़ुद को कुर्मियों का बड़ा नेता कैसे साबित कर पाएंगे. तीन साल पहले उनकी फूलपुर लोकसभा सीट पर बीजेपी 2018 का उपचुनाव हार गई थी. उसके बाद सिराथू को सबसे सेफ़ सीट मानते हुए वो लौटकर फिर गृह नगर आ गए. यहां शुरुआत से ही उनके ख़िलाफ़ जनता के एक वर्ग का विरोध खुलकर सामने आ चुका है.
उन्हें ख़ुद प्रचार छोड़कर बीच में जाना पड़ा, उनके बाद उनके समर्थन में गए MLC सुरेंद्र चौधरी को जनता ने कामकाज के पैमाने पर झूठा कहकर बैरंग लौटा दिया. सिराथू में जिन लोगों ने केशव मौर्य और बीजेपी का विरोध किया है, उनका दावा है कि क्षेत्र में तमाम वादों के बावजूद विकास नहीं किया गया. जनप्रतिनिधियों ने जीत के बाद जनता पर ध्यान नहीं दिया. केशव मौर्य इसी सिराथू से जीत का दावा कर रहे हैं. केशव मौर्य सिराथू क्यों आए और क्यों इसे सेफ़ सीट माना जाता है, इस पर भी ग़ौर कीजिए.
सिराथू में किसका सिक्का चलेगा?
सिराथू में 3.65 लाख से ज़्यादा मतदाता हैं. यहां क़रीब 34% पिछड़ा वर्ग, 33% दलित मतदाता हैं. 19% मतदाता सामान्य जाति के हैं और 13% मुस्लिम वोटर हैं. यूं तो सामान्य वोट गणित में पिछड़ा वर्ग और दलित वोटबैंक ही निर्णायक है, लेकिन इस बार यहां का सियासी समीकरण कुछ और कह रहा है. अगर पिछड़ा वर्ग में अपना दल (क) की पल्लवी पटेल (SP प्रत्याशी) ने सेंध लगा दी, तो केशव मौर्य की राह मुश्क़िल हो सकती है.
इसके अलावा समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी होने की वजह से अगर पिछड़ों के साथ मुस्लिम वोट बैंक (13%) ने एकतरफ़ा वोट कर दिया, तो केशव मौर्य के लिए जीत पाना किसी भी तरह आसान नहीं होगा. ऐसे में 33% दलित मतदाता और 19% सामान्य वोटर बहुत अहम हो जाते हैं. अगर केशव मौर्य और पल्लवी पटेल की पिछड़ा वर्ग (कुर्मी वोट) वाली जंग में BSP के संतोष त्रिपाठी को दलित और सामान्य वोट एकसाथ मिल गए, तो नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं.
BSP का गढ़ रही है सिराथू विधानसभा
सिराथू विधानसभा सीट पर बहुजन समाज पार्टी का बोलबाला रहा है. ये सीट कभी बसपा का गढ़ हुआ करती थी. 2012 से पहले ये अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट थी. साल 1993 से 2007 तक यहां लगातार BSP ने जीत हासिल की. 2012 से पहले BJP और सपा कभी यहां जीत दर्ज नहीं कर सकीं. 2012 और 2017 में लगातार ये सीट BJP के खाते में गई. लेकिन, 2022 की लड़ाई ने एक बार फिर BJP के साथ-साथ केशव प्रसाद मौर्य को कसौ़टी पर ला दिया है. इस बार पल्लवी पटेल के लिए अगर पिछड़ों और मुस्लिमों का वोटबैंक एकसाथ आ गया तो समाजवादी पार्टी खेला कर सकती है.
केशव का विरोध लंबा चला तो मुश्क़िल तय
केशव मौर्य के ख़िलाफ़ उनके विधानसभा क्षेत्र में विरोध इसी तरह लंबा चला तो चुनाव में उन्हें नुक़सान उठाना पड़ सकता है. स्थानीय मुद्दों को लेकर उनके ख़िलाफ़ जो नाराज़गी है, वो भले ही मौजूदा विधायक से हो, लेकिन लोग ग़ुस्सा तो BJP के इस बार के प्रत्याशी पर ही निकाल रहे हैं. इसलिए, जिस सिराथू सीट को केशव मौर्य या BJP ने सेफ़ सीट माना है, वो इतनी सेफ़ नहीं नज़र आ रही है. केशव मौर्य और BJP दोनों के लिए बेहतर यही है कि वो जनता के बीच जाकर उनकी नाराज़गी दूर करने की कोशिश करें. क्योंकि, केशव मौर्य के लिए ये सिर्फ़ विधानसभा चुनाव नहीं बल्कि उनके ख़ुद के लिए राजनीतिक स्थिरता और भविष्य में पिछड़ों की सियासत पर हक़ बरक़रार रखने का सवाल है. सिराथू का जनादेश ही ये तय करेगा कि BJP और केशव मौर्य 2012 की तरह यहां सीट और सियासी वर्चस्व बचा पाएंगे या हाशिये पर चले जाएंगे.
SP मौर्य का पिछड़ों पर अधिकार, फिर ‘सेफ़ सीट’ से क्यों हुंकार?
कौशाम्बी में केशव मौर्य की तरह कुशीनगर में स्वामी प्रसाद मौर्य का राजनीतिक वजूद दांव पर है. स्वामी प्रसाद मौर्य ने BJP छोड़ने के बाद समाजवादी पार्टी में शामिल होते ही कहा था कि वो पिछड़ों के सर्वमान्य नेता हैं. BSP और BJP के साथ गए, तो पिछड़ों का वोटबैंक भी ले गए और दोनों दलों की सरकार बनाने में सबसे अहम भूमिका अदा की. ऐसे में सवाल ये है कि वो अपनी सबसे सेफ़ सीट पडरौना छोड़कर फ़ाज़िलनगर क्यों गए? सवाल उठ रहे हैं कि क्या स्वामी प्रसाद मौर्य ने कांग्रेस से BJP में गए RPN सिंह के डर से अपनी परंपरागत सीट पडरौना छोड़ दी.
स्वामी ने RPN से छीनी थी पडरौना सीट
स्वामी प्रसाद मौर्य से पहले RPN सिंह पडरौना सीट से 1996, 2002 और 2007 तक लगातार तीन बार विधायक रह चुके हैं. ऐसे में ये विधानसभा स्वामी प्रसाद मौर्य की तरह RPN सिंह का भी गढ़ मानी जाती है. स्थानीय उम्मीदवार की बात करें तो RPN सिंह क्षेत्र के ही हैं और वो पडरौना से विधायक के अलावा 2009 में कुशीनगर लोकसभा से सांसद भी रह चुके हैं. वहीं, स्वामी प्रसाद मौर्य प्रतापगढ़ में जाकर भी राजनीति करते हैं. ऐसे में आरपीएन सिंह के BJP में आने से पडरौना सीट पर स्वामी का गणित गड़बड़ा सकता है.
स्वामी प्रसाद मौर्य को समाजवादी पार्टी ने मुश्क़िल मुकाबले से बचाने के लिए सेफ़ सीट पर भेजा है, ताकि जीतने के लिए ज़्यादा मशक़्क़त न करनी पड़े. दरअसल, सपा के स्टार प्रचारकों में स्वामी प्रसाद मौर्य का नाम शुमार है. इसके अलावा अखिलेश यादव की पार्टी में उनकी मार्केटिंग भी पिछड़ों और ख़ास तौर पर कुर्मियों के बड़े नेता के तौर पर की थी. इसलिए, RPN सिंह के BJP में आने के बाद तीन बार से लगातार पडरौना सीट जीतने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य को शायद अब यहां संभावित ख़तरा नज़र आ रहा था.
सपा का गढ़ रहा है फाज़िलनगर
कुशीनगर की फ़ाज़िलनगर सीट जहां से समाजवादी पार्टी ने स्वामी प्रसाद मौर्य को प्रत्याशी बनाया है, वहां फिलहाल BJP के गंगा कुशवाहा लगातार दो बार से विधायक हैं. इससे पहले सपा के दिग्गज नेता विश्वनाथ का इस सीट पर कब्ज़ा का था. वो 6 बार फ़ाज़िलनगर सीट से मुस्लिम वोटों के सहारे विधायक चुने गए. गंगा कुशवाहा ने कुशवाहा वोटबैंक के दम पर विश्वनाथ को लगातार पिछले दो चुनाव में मात दी है. स्वामी प्रसाद मौर्य को फ़ाज़िलनगर इसलिए भेजा गया है, क्योंकि यहां कुशवाहा बिरादरी के वोट और मुस्लिम वोट मिलाकर स्वामी प्रसाद मौर्य की जीत तय कर सकते हैं. लेकिन, ये चुनौती इतनी भी आसान नहीं है.
BJP के गंगा सिंह कुशवाहा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में फ़ाज़िलनगर सीट पर सपा के विश्वनाथ को 41,922 वोटों के बड़े अंतर से हराया था. 2012 के विधानसभा चुनाव में गंगा कुशवाहा को बसपा के कलामुद्दीन ने कड़ी टक्कर दी थी. उस समय जीत का अंतर 5,500 वोटों से भी कम रहा. ऐसे में BJP को हराने के लिए समाजवादी पार्टी ने करीब 90 हज़ार मुस्लिम मतदाताओं, लगभग 55 हज़ार मौर्य-कुशवाहा वोटर और 50 हज़ार यादव मतदाताओं के सहारे स्वामी प्रसाद मौर्य को उतार दिया है. इसके अलावा फ़ाज़िलनगर सीट पर 80 हज़ार दलित वोटर भी हैं. इस सीट पर ब्राह्मण वोटर 30 हज़ार और वैश्य मतदाताओं की संख्या 30 हज़ार है.
3 बार विधायक चुनने वाले पडरौना से दूरी क्यों?
स्वामी प्रसाद मौर्य को जिस पडरौना ने लगातार तीन बार अजेय बनाया, वहां से उन्होंने दूरी क्यों बना ली? इस सवाल का जवाब है, वो राजनीतिक समीकरण जो स्वामी प्रसाद मौर्य को बिना किसी जोखिम के एक बार फिर विधायक चुनने का मौक़ा देते हैं. स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक लगातार तीन बार विधायक चुने जाने के बाद जनहित के काम उतने नहीं हो सके, जितनी लोगों को उम्मीदें थीं. इसके अलावा RPN सिंह के BJP में आने के बाद पडरौना में जातिगत वोट गणित पर जो भी असर पड़ेगा, वो स्वामी के लिए नुक़सानदेह साबित हो सकता है.
SP मौर्य और KP मौर्य पिछड़ों की कसौटी पर
कहते हैं कि जब चुनौती बड़ी हो, तो बड़े नेता बड़ा लक्ष्य तय करके उस चुनौती को स्वीकार करते हैं और उसे पार करके ये साबित करते हैं कि वो अगर बड़े नेता हैं, तो क्यों हैं. लेकिन, स्वामी प्रसाद मौर्य और केशव मौर्य दोनों ने इस मामले में चुनौतियों के ख़तरों से होकर गुज़रने के बजाय सेफ़ सीट का विकल्प चुना.
ये दोनों नेताओं के लिए सुरक्षित तरीक़े से विधानसभा पहुंचने का रास्ता तो हो सकता है, लेकिन यही बात सामाजिक और राजनीतिक रूप से इन नेताओं के सीट के चुनाव को लेकर सवाल भी उठाती है. लोग सवाल पूछ रहे हैं कि जब पिछड़ों की सियासत करते हैं, पिछड़ों के हित का दावा करते हैं, पिछड़ों की आवाज़ बुलंद करते हैं, तो फिर ख़ुद को सेफ़ सीट के पैमाने पर क्यों आज़माना चाहते हैं? बहरहाल, सेफ़ सीट होने के बावजूद इस बार स्वामी प्रसाद मौर्य और केशव प्रसाद मौर्य की राह में नई तरह की चुनौतियां हैं.