जोरावर सिंह और फतेह सिंह की शहादत, पंच प्यारों का चयन और औरंगजेब के बेटे की मदद… कहानी गुरु गोविंद सिंह की

जोरावर सिंह और फतेह सिंह की शहादत, पंच प्यारों का चयन और औरंगजेब के बेटे की मदद… कहानी गुरु गोविंद सिंह की

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से एलान किए जाने के बाद 26 दिसंबर को गुरु गोविंद सिंह जी के साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह के बलिदान की याद में हर साल बीर बाल दिवस मनाया जाने लगा. दिल्ली में बाल दिवस पर हुए कार्यक्रम में पीएम मोदी ने शिरकत भी की थी.

गुरु गोविंद सिर्फ 9 साल के थे, जब उनके पिता गुरु तेग बहादुर का कटा हुआ सिर अंतिम संस्कार के लिए आनंदपुर साहिब लाया गया. पिता की शहादत ने अगले 33 साल तक उनका जीवन के प्रति नजरिए को बदल डाला. 19 साल की उम्र तक गुरु गोविंद सिंह ने खुद को आने वाले समय के लिए तैयार किया. लेखक खुशवंत सिंह अपनी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ द सिख’ किताब में लिखते हैं कि उनको संस्कृत और फारसी पढ़ाई गई. उनको हिंदी और पंजाबी पहले ही आती थी. उन्होंने इन चार भाषाओं में कविता भी लिखी और कई हिंदू धर्म शास्त्रों को अपनी भाषा में लिखा.

बिलासपुर के राजा भीम चंद से गुरु गोविंद सिंह को पहली चुनौती मिली थी, जो उनकी लोकप्रियता से चिढ़ता थे. गुरु से नाराज होने का उसका दूसरा कारण यह भी था कि उन्होंने एक बार भीमचंद को अपना हाथी देने से इनकार कर दिया थे. इसी बात से नाराज भीमचंद ने आनंदपुर पर हमला किया, लेकिन उसको करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा.

गुरु ने ऐसे बनाएं पंच प्यारे

1699 की शुरुआत में गुरु गोविंद सिंह ने बैसाखी के मौके पर सभी सिखों से आनंदपुर में जमा होने का संदेश भेजा. यहां पर उन्होंने भीड़ के सामने अपनी म्यान से तलवार निकाली और धर्म के लिए अपना बलिदान देने वाले 5 लोगों को सामने आने को कहा. सबसे पहले लाहौर के दया राम आगे आए और गुरु उनको बगल के तंबू में ले गए, जब वह बाहर आए तो उनकी तलवार से खून टपक रहा था. इसके बाद हस्तिनापुर के धर्मदास अपना सिर हाजिर करने वाले दूसरे शख्स बने. उनको भी गुरु तंबू के अंदर ले गए. इसके बाद द्वारका के मोहकम चंद, जगन्नाथ के हिम्मत और बीदर के साहिब चंद भी अपना बलिदान देने के लिए तैयार हो गए. थोड़ी देर के बाद इन पांचों लोगों के साथ बाहर आए.

इन पांचों लोगों ने केसरिया रंग के कपड़े और पगड़ी पहनी हुई थी. वहां पर मौजूद लोगों को तब जाकर पता चला कि गुरु ने उनको मारा नहीं बल्कि उनके साहस की परीक्षा ले रहे थे. गुरु ने इन लोगों को पंच प्यारे का नाम दिया और उन सभी के हिंदू नाम बदलकर उनको उपनाम सिंह दिया गया. इसके साथ ही गुरु ने खालसा के लिए पांच नियम बनाए, जिनमें बालों को व्यवस्थित करने के लिए कंघी रखने को कहा गया, उनके घुटनों तक कच्छा पहनने के लिए कहा गया जोकि उस समय के सैनिक पहनते थे, उनके दाएं हाथ में लोहे का कड़ा पहनना अनिवार्य कर दिया और उनको हमेशा अपने साथ एक कृपाण रखने को कहा गया. इसके अलावा उनको धूम्रपान करने, शराब पीने और हलाल मांस ने खाकर झटका मांस खाने को कहा गया.

बिलासपुर के राजा ने औरंगजेब से मांगी मदद

1701 से 1704 के बीच पहाड़ी राजाओं से गुरु गोविंद की झड़पे होती रही और अंत में बिलासपुर के राजा भीम चंद के बेटे अजमेर चंद ने औरंगजेब से मिलकर गुरु गोविंद सिंह के खिलाफ हाथ मिलाया. औरंगजेब ने दिल्ली, सरहिंद और लाहौर के अपने गवर्नरों को आदेश दिए कि गुरु पर अपने सारे सैनिकों के साथ हमला बोल दें और पहाड़ी राजाओं के सैनिक भी उनके साथ इस जंग में साथ देंगे. उसने अपने आदेश में यह भी कहा कि युद्ध के बाद गुरु गोविंद सिंह को पकड़कर औरंगजेब के सामने पेश किया जाए.

जब गुरु को इस बारे में पता चला तो उन्होंने अपनी सेना को 6 भागों में बांट दिया, जिसमें 5 टुकड़ियों को 5 किलो की रक्षा की जिम्मेदारी दी गई और छठे को रिजर्व के तौर पर रखा गया. उन्होंने अपने जनरलों से खुले में लड़ने की बजाय अपने किलों में रहकर लड़ने का आदेश दिया, क्योंकि उनको पता था कि दुश्मन की सेना इतनी ज्यादा है कि उनसे लड़ना मुश्किल होगा. गुरु की सेना ने ऐसा ही किया और जब भी मुगल सैनिकों ने किले की तरफ बढ़ने का प्रयास किया, उनको तोप के गोले और बंदूक की गोलियां तोहफे में मिली, मुगलों का बहुत ज्यादा नुकसान हुआ.

किले की कर दी थी घेराबंदी

इसके बाद उदय सिंह और दया सिंह के नेतृत्व में सिख सैनिक किले से बाहर निकले और मुगल सैनिकों पर टूट पड़े. अगले दिन गुरु गोविंद सिंह खुद लड़ाई में शामिल हुए, जहां लड़ाई के दौरान अजमेर चंद ने गुरु को पहचान लिया और वजीर खां व जबरदस्त खां ने वहीं पर ऐलान किया कि जो भी गुरु पर वार करेगा, उसे बड़ा इनाम दिया जाएगा. दूसरे दिन की लड़ाई में गुरु और उनके सैनिकों ने भारी तबाही मचाई, जिसके बाद मुगलों को लग गया कि सिख सैनिकों को लड़कर हराया नहीं जा सकता, बल्कि उनको हराने का एकमात्र उपाय किले की घेराबंदी कर बाहर की दुनिया से उनका संपर्क काटकर भूख से परेशान होकर वह मुगलों की अधीनता मान लेंगे. कुछ महीनों बाद हुआ भी ऐसा ही, क्योंकि महीनों तक किलों के अंदर रहने के बाद अब वहां पर रसद खत्म हो रही थी और लोगों के भूखे मरने की नौबत आने लगी थी.

मुगलों का भंडाफोड़ किया

तभी अजमेर चंद ने गुरु गोविंद सिंह को खत लिखकर कहा कि अगर वह अपने साथियों के साथ आनंदपुर से निकल जाते हैं तो उनको जाने की अनुमति होगी. गुरु को इस प्रस्ताव पर शंका हुई, लेकिन उनकी मां माता गुजरी ने उनको मनाया कि इससे वह कई लोगों की जान बचा सकते हैं. गुरु ने इस प्रस्ताव को जांचने के लिए मुगलों को आदेश भिजवाया कि वह और उनके साथ आनंदपुर से बाहर निकलने को तैयार है. बशर्ते उनके मूल्यवान सामान को बैल गाड़ियों में पहले बाहर भेजा जाए. मुगलों ने उनकी इस बात को तुरंत मान लिया और उन्होंने बैलगाड़ी मुहैया कराने की भी बात कही. इसके बाद गुरु ने आनंदपुर के लोगों से अपना सारा बेकार सामान जमा करने को कहा और उनको बैल गाड़ियों लादा. हर बैलगाड़ी पर मशाल जलाई गई थी ताकि मुगलों का ध्यान उसपर जा सके. रात को जैसे ही यह काफिला निकला और यह मुगलों की पहुंच तक पहुंचे तो उनको लूट लिया गया. इस तरह से उन्होंने मुगलों का भंडाफोड़ किया.

बाद में गुरु को आनंदपुर छोड़ना पड़ा, लेकिन सरसा नदी के किनारे मुगलों ने उन पर हमला बोल दिया. इस लड़ाई में उनकी मां, उनके दो छोटे बेटे जोरावर सिंह और फतेह सिंह भी उनसे बिछड़ गए. वह सैनिकों और बड़े दोनों बेटों के साथ चमकौर पहुंचने में सफल रहे. उनके साथ 40 सैनिक थे और अपने से कहीं अधिक मुगलों को मौत के घाट उतार दिया. इसकी लड़ाई में उनके दोनों बेटे अजीत सिंह, झूझर सिंह व दो पंच प्यारे मोहकम सिंह और हिम्मत सिंह शहीद हो गए. कुछ दिनों के बाद गुरु को अपने दोनों छोटे बेटे जोरावर सिंह और फतेह सिंह के भी शहीद होने की खबर मिली.

जोरावर सिंह और फतेह सिंह की शहादत

गुरु गोविंद सिंह के नौकर ने ही उनके दोनों छोटे बेटों की मुखबिरी कर दी थी और सरहिंद के गवर्नर वजीर खां ने उनको मारने आदेश दिया. लेखक पटवंत सिंह लिखते हैं कि वजीर खां ने गुरु के दोनों छोटे बेटो को इस्लाम धर्म कबूल करने के बाद जान बख्शने की बात कही थी, लेकिन 6 और 8 साल के इन मासूमों ने ऐसा करने से मना कर दिया. इसके बाद वजीर खां ने उनको जिंदा दीवार में चुनवाने का आदेश दिया. जोरावर सिंह और फतेह सिंह की शहादत की खबर सुनने के बाद गुरु की मां का सदमे से निधन हो गया.

जब गुरु गोविंद सिंह ने लगाया धोखे से हमला करना का आरोप

नाभा से गुरु गोविंद सिंह ने औरंगजेब को फारसी में एक खत लिखकर धोखे से हमला करके हराने का आरोप लगाया. औरंगजेब ने अपने दो अधिकारियों को लाहौर के उप गवर्नर मुनीम खा के पास भेजकर गुरु के साथ संधि करने को कहलवाया. गुरु एक समय में औरंगजेब से मिलने के लिए थे, लेकिन जब वह राजपूताना पहुंचे तो उन्हें औरंगजेब की मौत का समाचार मिला. औरंगजेब की मौत के बाद उसके बेटों में कुर्सी के लिए लड़ाई शुरू हो गई और उसके बेटे शहजादा मुअज्जम ने अपने भाइयों के खिलाफ गुरु की मदद मांगी. गुरु ने कुल दीपक सिंह के नेतृत्व में मुअज्जम के भाई आजम से लड़ने के लिए सिख लड़ाकों का एक जत्था भेजा. जून 1707 में आगरा के पास हुई इस जंग में आजम मारा गया और मुअज्जम मुगलों की गद्दी पर बैठा. बाद में उसने अपना नाम बदलकर बादशाह बहादुरशाह रख लिया.

इसके बाद बहादुरशाह जब अपने दूसरे भाई कामबख्श के विद्रोह को दबाने के लिए दक्षिण गया तो गुरु ने अपने कुछ साथियों के साथ दक्षिण का रुख किया. अपने अंतिम पड़ाव में गुरु गोदावरी नदी के किनारे बसे शहर नांदेड़ में थे. लेखक खुशवंत सिंह के मुताबिक, 20 सितंबर 1708 की शाम जब वो प्रार्थना के बाद अपने बिस्तर पर आराम कर रहे थे तो अताउल्लाह खां और जमशेद खां ने उनके तंबू में प्रवेश किया और उनको अकेला पाकर खंजर से उनके पेट पर वार किया. उन दोनों को वजीर खां ने गुरु को मारने भेजा था. गुरु ने एक हत्यारे को तुरंत मार डाला था और दूसरे को उनके साथियों ने मार दिया. गुरु के जख्म पर उनके साथी अमर सिंह ने टांके लगाए, लेकिन वह कुछ दिनों के बाद खुल गए.

42 साल की उम्र में अलविदा कह दिया

बादशाह बहादुर शाह को जब गुरु पर हमले की खबर मिली तो उन्होंने अपने चिकित्सक निकोलाओ मनूची को उपचार के लिए भेजा, लेकिन 6 अक्टूबर आते-आते उनको लग गया कि उनका अंत निकट है. उन्होंने अपने अनुयायियों की सभा बुलाकर कहा कि उनके बाद उनका कोई गुरु नहीं होगा और सारे सिख गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों के दसों गुरुओं के प्रतीक के तौर पर मानंगे. 7 अक्टूबर 1708 को आधी रात के बाद उन्होंने सिर्फ 42 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया.