गरीबों के बच्चे गायब और अमीरों के बच्चे किडनैप होते हैं… निठारी कांड की कहानी, रिपोर्टर की जुबानी
निठारी कांड के आरोपियों को सबूतों के अभाव के चलते इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रिहा कर दिया. लेकिन, अब सवाल ये कि उन पीड़ित गरीब परिवारों के लिए कोई इंसाफ की लड़ाई लड़ेगा? ऐसे फैसलों के बाद क्या कोई गरीब कभी इंसाफ़ के लिए कोर्ट पर विश्वास करेगा. क्या थी निठारी कांड की पूरी कहानी, आइए जानते हैं.
साल 2006 का वक्त था जब रिपोर्टिंग के दौरान कई बार निठारी से फोन आता था कि रात से हमारा बच्चा घर से गायब हो गया है. नाइट शिफ्ट के दौरान कई बार दफ्तर में फोन बजता और दूसरी तरफ से कभी कोई महिला तो कभी कोई आदमी रो-रोकर अपना दुख बताता. रात में नोएडा के उस गांव पहुंचकर पहले लगा कि एक ही मामला है, कभी लगता कैसे लापरवाही से कोई अपना बच्चा छोड़ दे रहा है कि बच्चे गायब हुए जा रहे हैं.
तीसरे केस से संदेह गहराया जब मोहल्ले वालों ने गिनती करके बताया कि 27-28 बच्चे गायब हुए हैं. आंख में आंसू लिए परिवारों को रात में थाने और दिन में रोजी रोटी के लिए दौड़ते देखकर ही लगा था कि इनके लिए कानूनी लड़ाई आसान नहीं होगी. मिसिंग बच्चों पर रिपोर्ट फाइल करते वक्त ये पैटर्न देखा था कि गायब हमेशा गरीब का बच्चा होता है, जबकि अमीरों के बच्चे किडनैप होते हैं. चूंकि ये लो प्रोफाइल मामले होते हैं, शिकायत लिखने से लेकर खोजने तक में तीव्रता और संवेदनशीलता दोनों की कमी होती है.
निठारी में आज भी महसूस होती है सिहरन
थाने के घेराव और धरने की बातें जब होने लगी तो पुलिस सक्रिय हुई. रिपोर्टर्स अपनी जांच पड़ताल में लगे थे कि एक दिन अचानक सुबह-सुबह जो खबर आई उसने दिमाग सुन्न करके रख दिया. पता चला बच्चों का रेप, उसके बाद हत्या और फिर नरभक्षी उनका मांस भी खाता था. आज भी नोएडा के निठारी के डी-5 के आस-पास से गुजरते हुए सिहरन हो जाती है.
केस बढ़ते-बढ़ते जो खुलासे हुए वो सुरेंद्र कोली के इंसान होने पर सवाल करते जा रहे थे. मोनिंदर सिंह पंढेर के घर पर मासूम मौतों का जो तांडव चल रहा था उसने हर किसी को झकझोर दिया था. जो बच्चे कोली और पंढेर की दानवता के शिकार हुए वो तो कभी वापस नहीं आएंगे. लेकिन सवाल ये है कि वक्त बीतता जाएगा तो क्या हम वो वहशीपन भी भूल जाएंगे.
गरीब के इंसाफ के लिए कौन लड़ेगा ?
कानून का ध्येय है लाख दोषी छूट जाएं पर किसी निर्दोष को सजा न होने पाए. लेकिन 17 साल बाद अगर धीरे से कोली और पंढेर के बरी हो जाने को रास्ता मिल जाता है तो सवाल ये है कि क्या वाकई इंसाफ हुआ? क्या वाकई ये फैसला समाज को कोई उदाहरण कोई मिसाल दे पाया? बीतते वक्त के साथ सजा भले ही कम हो जाए लेकिन पीड़ित का दर्द बढ़ता ही है. और चूंकि हमने जेसिका लाल, प्रियदर्शनी मट्टू, नितीश कटारा जैसे मामलों में शोर के बाद ही इंसाफ की अलख देखी है, क्या 17 साल बाद इस मामले को फिर एक चीख की दरकार है. सबसे बड़ा सवाल, क्या कोई है भी जो गरीब के इंसाफ के लिए लड़ेगा.
गवाह के अभाव में बरी
कानून सबूत पर चलता है सेंटीमेंट्स पर नहीं, साक्ष्य पर चलता है संवेदना पर नहीं. अगर सिर्फ ये ही सिद्धांत न्याय के मंदिर पर विजयी होने लग जाएंगे, तो कानून के जानकार और पैसों के मालदार सुबूतों की कमी और केस के लूपहोल्स को धुरी बनाकर हमेशा इंसाफ की आस को धराशायी करते रहेंगे. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 12 मुकदमों में फांसी की सजा से इन दोनों को गवाह के अभाव में बरी कर दिया है.
अगर सबूत नहीं है तो जांच कमेटी से पूछिए , अगर साक्ष्य नहीं जुटे पुलिस से सवाल कीजिए. लेकिन केस कमजोर है कहकर कमजोर की आस मत तोड़िए. वरना इन 17 सालों का निचोड़ ही क्या निकला. पहले निठारी को अपने बच्चों की तलाश थी अब इंसाफ की. डी-5 बनाम गरीब की इस लड़ाई में अगर डी-5 की ही जीत है तो कोई गरीब कभी इंसाफ़ के लिए कोर्ट पर विश्वास नहीं करेगा.