बिहार: आरक्षण पर हाईकोर्ट के फैसले से विपक्ष को मिला मौका, अब नीतीश के कदम पर नजर

बिहार: आरक्षण पर हाईकोर्ट के फैसले से विपक्ष को मिला मौका, अब नीतीश के कदम पर नजर

बिहार हाई कोर्ट ने राज्य के उस कानून को रद्द कर दिया, जिसमें पिछड़ा, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण 50 से बढ़ाकर 65 फीसदी तक कर दिया गया था. इस मामले को लेकर 11 मार्च को सुनवाई हुई थी, जिसके बाद हाई कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था.

पटना हाई कोर्ट ने बिहार में आरक्षण 50 से बढ़ाकर 65 प्रतिशत किए जाने के फैसले को रद्द कर दिया है. बिहार में आरक्षण की सीमा को बढ़ाए जाने को लेकर हाईकोर्ट ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए उसे खारिज कर दिया है. साल 1992 के इंदिरा साहनी केस के जजमेंट को आधार बनाकर कोर्ट ने 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण देने के मसले पर सीमा बढ़ाने की बात को संविधान सम्मत नहीं माना है. ज़ाहिर है इसके बाद नीतीश कुमार पर विपक्ष तेजी से दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है.

ऐसा माना जा रहा है कि हाईकोर्ट का यह फैसला नीतीश कुमार को केंद्र सरकार से 9वीं अनुसूची में आरक्षण के मसले पर बात करने के लिए मज़बूर करेगा. वहीं केंद्र सरकार इसमें आनाकानी करती है तो केंद्र के खिलाफ विपक्ष इस मौके का फायदा उठाने से चूकेगा नहीं. हालांकि बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने कहा कि आरक्षण पर हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सरकार सुप्रीम कोर्ट जाएगी.

विपक्ष को कैसे मिल गया मौका?

पटना उच्च न्यायालय के फैसले के बाद बिहार में सियासत तेज हो गई है. इंडी गठबंधन के कुछ घटक दलों ने कोर्ट के फैसले को घोर अन्याय बताया है और नीतीश कुमार से इसको लेकर बड़ी मांग भी कर डाली है. सीपीआई (एमएल) के राज्य सचिव कुणाल के मुताबिक जाति आधारित जनगणना के बाद ओबीसी, ईबीसी, दलित और आदिवासियों के आरक्षण को बढ़ाकर 65 फीसदी किया जाना समय की मांग थी लेकिन वंचित समुदाय के आरक्षण पर ये संगठित हमले उसे कमजोर करने की साजिश है, जिसे कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता है.

भाकपा माले ने आगे कहा कि बीजेपी शुरू से ही जाति गणना की विरोधी रही है इसलिए बिहार की सत्ता में वापस काबिज होने के बाद 65 प्रतिशत आरक्षण को खत्म करवाने में उसकी सक्रियता किसी से छिपी नहीं है क्योंकि जाति गणना के खिलाफ वह न्यायालय जा चुकी है.

नौवीं अनुसूची में शामिल करने की वकालत

सीपीआई (एमएल) के सचिव नीतीश कुमार से सुप्रीम कोर्ट में जाने की अपील कर रहे हैं. वहीं आरजेडी नेता मनोज झा इस मसले पर तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार द्वारा किए जाने वाले प्रयास की सराहना करते हुए कहते हैं कि तेजस्वी यादव शुरूआत से ही 65 फीसदी आरक्षण को नौवीं अनुसूची में शामिल करने की वकालत करते रहे हैं. ज़ाहिर है ऐसा कह बिहार में आरजेडी और सीपीआई (एमएल) बिहार में ये माहौल बनाना शुरू कर चुकी है कि नीतीश केंद्र सरकार को समर्थन के एवज में 65 फीसदी आरक्षण को नौवीं सूची में डलवाने का प्रयास तेज करें, वरना उन्हें आरक्षण विरोधी करार दिया जाएगा. कांग्रेस भी न्यायालय के फैसले के बाद जातीय जनगणना के मुद्दे पर सरकार को घेरने का प्रयास करेगी.

जातीय जनगणना का मुद्दा

लोकसभा चुनाव से पहले पूरे देश में जातीय जनगणना करा कर संख्या के हिसाब से आरक्षण लागू करने की बात कांग्रेस करती रही है. वैसे कांग्रेस का ये स्टैंड पहले से बिल्कुल उलट है क्योंकि नेहरू के जमाने से काका कालेलकर की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश रही हो या फिर इंदिरा गांधी के ज़माने से मंडल कमीशन की रिपोर्ट. कांग्रेस आरक्षण के विरोध में मुखर दिखी है. साल 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लोकसभा में बीपी सिंह द्वारा मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू किए जाने का पुरजोर विरोध किया था ये सर्वविदित है. लेकिन राहुल गांधी लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से ही जातीय जनगणना के मुद्दे पर बीजेपी को घेरने में जुट गए हैं.

कांग्रेस भले ही साल 2009 से लेकर 2014 के बीच जातीय जनगणना नहीं कराने को लेकर कोई ठोस जवाब नहीं दे रही हो लेकिन अब वो इसकी पुरजोर वकालत कर बीजेपी के ओबीसी वोट बैंक पर बड़े सेंधमारी का प्रयास करने से चूक नहीं रही है. ज़ाहिर है जेडीयू भी इस बात का दावा करती रही है कि बिहार के तर्ज पर पूरे देश में जातीय जनगणना कराया जाना चाहिए. इसलिए हाईकोर्ट के फैसले के बाद नीतीश कुमार केंद्र सरकार पर किस तरह का दबाव बनाते हैं. इसको लेकर कयासों का बाजार गरम हो गया है.

जातीय जनगणना को लेकर केंद्र पर दबाव!

दरअसल साल 1992 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, ये तय हो गया था. पीएम मोदी के पिछले कार्यकाल में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए 10 फीसदी के आरक्षण का प्रावधान रखा गया, जिसे कोर्ट में चुनौती दिए जाने के बाद खारिज कर दिया गया है. ज़ाहिर है इसके बाद इस बात को लेकर चर्चा तेज हो गई है कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ाई जा सकती है. लेकिन पटना हाईकोर्ट द्वारा आरक्षण की सीमा को बढ़ाए जाने को लेकर कोर्ट के फैसले ने एक बार फिर नौंवी अनुसूची में शामिल करने की बात केंद्र में ला खड़ा कर दिया है.

केंद्र सरकार की मदद पलटेगा फैसला

नीतीश जातीय जनगणना सफलतापूर्वक कराए जाने का क्रेडिट लेते रहे हैं. इसलिए पटना हाईकोर्ट के फैसले को केंद्र सरकार की मदद से पलटवाने में कामयाब नहीं होने पर अब दबाव बढ़ाकर नौवी अनुसूची में डलवाना उनकी प्राथमिकता होगी. ज़ाहिर है नौवीं अनुसूची में इसे डालकर स्थायी कानून का शक्ल दिया जा सकता है. लेकिन कोर्ट इसकी समीक्षा नहीं करेगा. इस बात से जानकार इत्तेफाक नहीं रखते हैं. वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मि दुबे के मुताबिक नौवीं सूची की समीक्षा करने का अधिकार भी सुप्रीम कोर्ट के पास है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट नौंवी अनुसूची में शामिल किए जाने के बाद भी उसकी समीक्षा की ताकत रखता है.

ज़ाहिर है पटना हाईकोर्ट के फैसले के बाद केंद्र सरकार पर जातीय जनगणना कराकर पूरे देश में आबादी के हिसाब से आरक्षण लागू करने का दबाव विपक्ष बना सकती है. केेंद्र सरकार इस मसले पर पीछे हटती रही है. साल 2009 में मनमोहन सिंह की सरकार हो या पिछले 10 सालों में पीएम मोदी की सरकार, दोनों जातीय जनगणना के मसले पर पीछे हटते दिखे हैं. लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा हाल फिलहाल में बदले गए स्टैंड की वजह से पूरे देश में जातीय जनगणना कराने दबाव केंद्र सरकार पर तेजी से बढ़ सकता है.

टीडीपी और जेडीयू का भी बीजेपी पर दबाव

इसके लिए बीजेपी के दो मजबूत घटक दल टीडीपी और जेडीयू भी बीजेपी पर बड़ा दबाव बनाएंगे ये उनकी राजनीतिक मजबूरी और जरूरत भी है. विपक्षी पार्टियों में सीपीआई (एमएल) 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण को असंवैधानिक कहने से भी परहजे नहीं कर रही है. वहीं दलितों- वंचितों के आरक्षण विस्तार को असंवैधानिक बताने के फैसले को न्यायसंगत नहीं मान रही है. ज़ाहिर है सीपीआई (एमएल) के साथ आरजेडी का वो बयान की पर्दे के पीछे इस फैसले में किन लोगों का हाथ है कहना आने वाली जातीय जनगणना को लेकर आरक्षण पर होने वाली राजनीति की ओर साफ इशारा कर रही है.