RSS के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की महान स्मृतियों को समर्पित स्मृति मंदिर, जानें क्या है खास

1957 में संघ ने एक निर्णय लिया कि यहां पर कुछ निर्माण करना है और इसलिए 1957 में डॉक्टर हेडगेवार स्मारक समिति को रजिस्टर कराया गया. यह वह जो 2.2 एकड़ की जमीन थी, वह इस ट्रस्ट को दी गई. इसके बाद ट्रस्ट ने कुछ जमीन खरीदी. नवंबर 1960 में इस स्मृति मंदिर का कार्य प्रारंभ हुआ.
नागपुर में स्थित डॉक्टर हेडगेवार स्मारक समिति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के संस्थापक का स्मारक मात्र नहीं है, यह एक ऐसी जगह है जो संगठन की वैचारिक जड़ों से गहराई से जुड़ा हुआ है. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के सम्मान में उनके उत्तराधिकारी एमएस गोलवलकर द्वारा निर्मित यह स्थल उन लोगों के लिए श्रद्धांजलि और तीर्थस्थल दोनों के रूप में कार्य करता है जो संगठन से अपनी वैचारिक वंशावली जोड़ते हैं. यहीं आरएसएस के पहले दो सरसंघचालकों या प्रमुखों की समाधि है.
डॉक्टर हेडगेवार स्मारक समिति का परिसर क्षेत्र 7 एकड़ में फैला हुआ है, जिसमें से 2.2 एकड़ की जमीन डॉक्टर हेडगेवार ने 1933 में खरीदी थी. साल 1925 में संघ की स्थापना के बाद 1928 से यहां कैंप लगना शुरू हुआ था. यह जिनकी जमीन थी, उन्हीं के पास से उन्होंने 2.2 एकड़ की जमीन खरीदी थी. साल 1957 में यह ट्रस्ट रजिस्टर होने के बाद इस ट्रस्ट के नाम कुछ जमीन खरीदी गई और कुछ लीज की जमीन है. कुल मिलाकर यह 7 एकड़ की भूमि है.
क्यों खास है डॉ. हेडगेवार स्मारक समिति?
इस परिसर में सभी बड़े डॉमेटरी हॉल्स हैं. एक हॉल में 25 स्वयंसेवक रहेंगे, ऐसी यह एक हॉल की रचना है. यहां जब आरएसएस का कैंप लगता है, उसके सबसे छोटी यूनिट में 22 स्वयंसेवक और 2 शिक्षक होते हैं, ऐसे 24 लोगों (एक गण) के लिए 25 दिन एक कमरे में व्यवस्था की जाती है. जैसे मिलिट्री में बैरक होते हैं और एक बैरक में एक प्लाटून रहती है, वैसे ही एक कमरे में 25 दिन तक एक गण रहेगा.
कुल मिलाकर 1300 लोग यहां रह सकेंगे, ऐसी व्यवस्था यहां है. जब 1300 लोग रहते हैं, तो उनके लिए 15,000 स्क्वायर फीट का एक लेक्चर हॉल भी यहां है. जहांपर 2000 लोग बेठ सकते हैं और अगर हम कुर्सियां लगाएंगे, तो 1400 कुर्सियां यहां लगती हैं. उसके नीचे उतना ही बड़ा भोजन कक्ष है, जहां एक साथ बैठकर 1200 लोग भोजन करते हैं.
इस परिसर का उपयोग संघ के अलावा भी अनेक सामाजिक संगठन अपने कार्यक्रम के लिए करते हैं. हमारे यहां चेस प्रतियोगिता, योगशिविर, प्रवचन और अन्य संगठनों की संगठात्मक बैठकें भी चलती हैं. साल भर के 52 हफ्तों में से लगभग 40-42 हफ्ते यहां कार्यक्रम चलते रहते हैं.
गुरू गोलवलकर का अंतिम संस्कार
इसी जगह पर डॉक्टर हेडगेवार और उसके बाद गुरू गोलवलकर का अंतिम संस्कार किया गया. यहां की जो भवन रचना है, वह सबसे पहले 1962 में स्मृति मंदिर का निर्माण हुआ. जिसके बाद स्मृति भवन के स्थान पर एक मंजिला इमारत 1965 में खड़ी हुई. बाद में 1978 में पांडुरंग भवन का निर्माण पूर्ण हुआ, माधव भवन का निर्माण 1983 में, यादव भवन का निर्माण 1996 में किया गया. 2002 में यादव भवन का एक्सटेंशन किया गया.
2009 से 2011 तक मधकुर भवन, स्मृति मंदिर का पूर्ण निर्माण, महर्षि व्यास सभागृह और पांडुरंग भवन का पूर्ण निर्माण किया गया. 2018-19 में स्मृति भवन का भी पूर्ण निर्माण किया गया है. यही स्मृति मंदिर का परिसर है, इसी स्थान पर 1940 में डॉ. हे़डगेवार के निधन के बाद उनका अंतिम संस्कार किया गया. 1940 के बाद इसी स्थान पर एक छोटा सा चबूतरा और उसके ऊपर एक तुलसी वृंदावन था. 1948 के बाद उसमें एक लकड़ी का कंपाउंड बनाया गया, एक लकड़ी का मंडप खड़ा किया गया और उसके ऊपर बेलें छोड़ दी थीं. ऐसा यह स्थान 1960 तक था.
1957 में समिति को कराया गया रजिस्टर
हालांकि 1957 में संघ ने एक निर्णय लिया कि यहां पर कुछ निर्माण करना है और इसलिए 1957 में डॉक्टर हेडगेवार स्मारक समिति को रजिस्टर कराया गया. यह वह जो 2.2 एकड़ की जमीन थी, वह इस ट्रस्ट को दी गई. इसके बाद ट्रस्ट ने कुछ जमीन खरीदी. नवंबर 1960 में इस स्मृति मंदिर का कार्य प्रारंभ हुआ. जनवरी 1962 में इसका काम पूरा हुआ. अप्रैल 1962 में इसका लोकार्पण हुआ. यह स्थान इस परिसर का पहला स्थान है. 1962 में यहां इस स्मृति मंदिर के अलावा और कुछ भी नहीं था.
ब्रॉनज मेटल से बनी है डॉ. हेडगेवार की मूर्ति
1965 में स्मृति भवन की जगह, जहां अभी का स्मृति भवन है, वहां एक एक मंजिला इमारत 1965 में तैयार हुई. यहां जो डॉक्टर हेडगेवार की मूर्ति है, यह ब्रॉनज मेटल से बनी हुई है. मुंबई के एक शिल्पकार नाना साहेब गोरेगांवकर ने यह मूर्ति बनाई है. 1962 से ही इसको यह ब्लैक मेटामलक पेंट दिया गया है. यह ब्लैक मेटामलक पेंट इसलिए दिया गया है कि यह ब्रॉनज मेटल ऑजक्सडाइज़ होने के कारण काला हो जाता है. यहीं सफाई करने के कोई व्यक्ति रखना पड़ता है. और हर रोज सफाई नहीं हुई, तो धीरे-धीरे यह मूर्ति काली हो जाएगी. इसलिए उनहोंने 1962 में जब मूर्ति बनाई, तब से ही इसको यह ब्लैक मेटामलक रंग दिया है.
मंदिर के आर्किटेक्ट थे बाला साहेब दीक्षित
यह जब मंदिर बन रहा था, तो उसके आर्किटेक्ट थे बाला साहेब दीक्षित, जो अपने पुणे के कार्यकर्ता थे. उन्होंने गुरू जी को कहा कि वह आर्किटेक्ट हैं, वह घर का डिज़ाइन बनाते हैं. इसके बाद गुरुजी ने उनसे कहा था कि यह मंदिर हो, लेकिन वह रथ जैसा दिखना चाहिए और इसलिए इसके आगे का प्रक्षेत्र खुला रहे, क्योंकि रथ में जो सारथी रहता है, वह खुले में रहता है. रथ में जो बैठा रहता है, उसके ऊपर छत्र-चामर रहता है. यहां रेलिंग नहीं है, उसका कारण भी यही है कि रथ में रेलिंग नहीं रहती है. और इसके नीचे ही छह एमलवेटेड स्ट्रक्चर छह घोड़ों का प्रतीक बनाया गया है.
17 प्रांतों के टाइल्स से बना स्वास्तिक
यह स्थान 1962 में बनकर पूरा हुआ. इसके बनते समय, 17 प्रांत थे. सभी ऐसे प्रांत में सबकी इच्छा थी कि हमारे यहां का पत्थर यहां लगाया जाए, लेकिन यह संभव नहीं था. इसलिए सभी से 17 छोटी टाइल्स लेकर यह स्वास्तिक बनाया गया. इस जगह पर गुरुजी का अंतिम संस्कार हुआ. 5 जून 1973 को पूजनीय गुरूजी का देहावसान हुआ. 6 जून 1973 को इस जगह पर उनका अंतिम संस्कार हुआ.
33 साल तक रहे संघ के सरसंघचालक
गुरू गोलवलकर सबसे ज़्यादा समय तक, यानी 33 साल तक संघ के सरसंघचालक रहे हैं. संघ में जो पद्धति है कि सरसंघचालक अगले सरसंघचालक की नियुक्ति करते हैं, उसी में गुरुजी ने अपने अंतिम समय में तीन पत्र लिखे थे. अंतिम यात्रा प्रारंभ होने के पहले उन पत्रों का वाचन किया गया. सबसे पहला पत्र उस समय महाराष्ट्र प्रांत के प्रांतीय संघचालक बाबाराव जी मभड़े ने पढ़ा था. उसमें अगले सरसंघचालक के नाम का विवरण था. उसमें लिखा था कि मधकुर दत्तात्रेय बाला साहब देवरस अगले सरसंघचालक होंगे.
दूसरा पत्र समाज के लोग और साधू संतों के लिए थे,जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैं 33 साल तक सरसंघचालक रहा हूं, अनेक वोगों से मिला हूं, मेरी वजह से किसी को दुख पहुंचा हो तो मुझे क्षमा करे, लेकिन संघ के प्रति प्रेम कायम रखिए. इसके बाद इस पत्र को लिस्ट बनाकर हर प्रांत में ऐसे लोगों के पास पहुंचाई गई थी.
बाला साहब को मिली जिम्मेदारी
तीसरा पत्र सवयंसेवकों के लिए था, जिसमें उन्होंने तीन प्रमुख बातें लिखी थीं. पहली बात यह कि मैनें मेरा श्राद्ध कर लिया है. हम जीते जी अपना पिंडदान कर सकते हैं. दूसरा यह कि मेरी मौत के बाद कोई मेरा स्मारक खड़ा नहीं करेगा. इसलिए यह स्थान खुले में है. तीसरी बात में उन्होंने स्वयंसेवकों से कहा कि जैसा आपने मुझे सहयोग दिया है वैसे ही बाला साहब को दीजिए. पत्र के अंत में जो मराठी अभंग संत तुकाराम महाराज ने अपने अंतिम समय में लिखा था, वहीं उन्होंने अपने पत्र में लिखा. जिसका हिंदी में अनुवाद है कि अंतिम यह मेरी प्रर्थना संत जन सुनें सभी, विस्मरण न हो मेरा आपको प्रभु कभी, अधिक और क्या कहूं, विदित सभी श्रीचरणों को, तुका कहे पड़ूं पांवों में करें कृपा की छांव को.
नागपुर में अखिल भारतीय बैठक
उस समय आने जाने के उतने साधन उपलब्ध नहीं थे और इसलिए बहुत से लोग यहां पहुंच नहीं पाए थे. इसलिए एक महीने के बाद नागपुर में एक अखिल भारतीय बैठक हुई, जिसमें इन पत्रों की चर्चा हुई. उस समय बाला साहब ने दो बातों का जिक्र किया था. उन्होंने कहा कि मेरे सहित किसी भी सरसंघचालक का अंतिम संस्कार इस जगह नहीं होगा. इस जगह को सरसंघचालक का दाहगृह या राजघाट जैसा स्वरुप नहीं देना है. उनका अंतिम संस्कार वहीं होगा जहां सामान्य लोगों का होता है.
इसलिए उसके बाद बाला साहब, रज्जु भैया और सुदर्शन जी का अंतिम संस्कार श्मशान में हुआ. वहीं बााल साहब से दूसरी बात कही थी कि संघ के किसी भी कार्यक्रम में दो ही फोटो रहेंगे. एक डॉ. हेडगेवार और दूसरा गुरू गोलवलकर का. इसिलिए संघ कार्यालयों में दो फोटो लगती हैं और तीसरी फोटो भारत माता की लगती है.