आखिरी बार जब कांग्रेस और NC में हुआ था चुनाव पूर्व गठबंधन, बदल गया था कश्मीर का इतिहास

आखिरी बार जब कांग्रेस और NC में हुआ था चुनाव पूर्व गठबंधन, बदल गया था कश्मीर का इतिहास

1987 के चुनाव को जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में बेहद अहम माना जाता है, क्योंकि इसे क्षेत्र में उग्रवाद के फैलने का तत्कालिक कारण भी करार दिया जाता है. 37 साल पहले देश के इस स्पेशल राज्य जम्मू-कश्मीर में चुनाव से पहले किस तरह का माहौल था और फिर कैसे आतंकवाद का गढ़ बन गया.

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने चुनावी समझौता किया है. चुनाव पूर्व इस गठबंधन ने 1987 के उस समझौते की याद दिला दी है जिसके परिणाम ने कश्मीर घाटी को आतंकवाद की आग में झोंक दिया था और 30 साल से भी अधिक समय तक लगी इस आग में बड़ी संख्या में बेगुनाहों के खून बहे. हजारों कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ना पड़ा और न जाने कितनी औरतों के साथ यौन शोषण किया गया. 1987 का जिक्र इसलिए क्योंकि तब भी कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन था और उनके सामने कट्टरवादी ताकतें थीं. उस चुनाव के बाद पहली बार अब यह मौका आया है कि जब दोनों पार्टियां नतीजों के बाद नहीं, बल्कि पहले गठबंधन करके उतर रही हैं.

विधानसभा चुनाव हो और 1987 के चुनाव का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता. यह वही चुनाव है जिसके बाद कट्टरपंथी ताकतें मजबूत होती चली गईं और कई लोगों ने हथियार तक उठा लिए. 1987 के वाकये को लेकर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (पीसी) के चेयरमैन सज्जाद गनी लोन समेत कई नेता लगातार नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और कांग्रेस पर हमला करते रहे हैं. लोन का कहना था कि 1987 के विधानसभा चुनावों में धांधली के लिए एनसी प्रमुख फारूक अब्दुल्ला और अन्य लोगों के खिलाफ मामला दर्ज करना कश्मीर में शांति की दिशा में सबसे बड़ा कदम होगा. इस विधानसभा चुनाव को कश्मीर में तीन दशकों से भी लंबे समय तक जारी ‘रक्तपात’ की बड़ी वजह भी माना जाता है.

राज्यपाल का वो फैसला, घाटी में बढ़ने लगी अशांति

आज से करीब 37 साल पहले 1987 के चुनावों को जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में एक बेहद अहम क्षण माना जाता है, क्योंकि इसे क्षेत्र में उग्रवाद के फैलने का तत्कालिक कारण भी करार दिया जाता है. आखिर 1987 में तब के स्पेशल राज्य का दर्जा हासिल करने वाले जम्मू-कश्मीर में चुनाव से पहले किस तरह का माहौल था.

बात 1986 की है. जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन (अप्रैल 1984 से जुलाई 1989 तक), जो कश्मीर की अवाम में अपनी लोकप्रियता गंवा चुके थे और बड़ी संख्या में लोग उन्हें पसंद नहीं करते थे. वजह यह थी कि राज्यपाल ने गुलाम मोहम्मद शाह की अगुवाई वाली अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस (ANC) सरकार को 6 मार्च 1986 को बर्खास्त कर दिया और राज्य में राज्यपाल शासन लगा दिया. इससे थोड़ा पहले जाएं तो तत्कालीन मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला की मौत के बाद उनके बेटे फारूक सितंबर 1982 में पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. करीब 14 महीने बाद राज्य में फिर से विधानसभा चुनाव कराए गए.

फारूक की जीत से कांग्रेस को झटका

नवंबर 1983 के चुनाव में कांग्रेस, फारूक अब्दुल्ला के रूप में नए नेतृत्व वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ चुनाव लड़ना चाहती थी. लेकिन बात नहीं बनी और फारूक अब्दुल्ला अकेले ही चुनाव जीत गए और राज्य में लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने.

हालांकि, चुनाव में कांग्रेस कों जम्मू क्षेत्र में बड़ी जीत मिली. कांग्रेस ने नेशनल कॉन्फ्रेंस में जारी आंतरिक कलह का फायदा उठाया और फारूक अब्दुल्ला की सरकार को गिराने के लिए उनके बहनोई और अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता गुलाम मोहम्मद शाह को अपने साथ मिला लिया. गुलाम मोहम्मद 2 जुलाई 1984 को मुख्यमंत्री बने और 6 मार्च 1986 तक पद पर रहे. राज्यपाल की ओर से शाह सरकार को अपदस्थ करने के बाद राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हो गया. इसके बाद राज्य में राज्यपाल शासन लगा दिया गया. राजनीतिक अस्थिरता के लिए केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार पर आरोप लगा.

घाटी में यूं बढ़ता गया असंतोष

राज्यपाल शासन के दौरान राज्यपाल जगमोहन की देखरेख में, ताबड़तोड़ कई अध्यादेश और कानून पारित किए गए, जिन्हें कश्मीर में ‘सांप्रदायिक एजेंडे’ से प्रेरित और ‘राज्य के मुस्लिम-बहुल चरित्र को कमजोर करने वाला’ माना गया, जिसमें जन्माष्टमी जैसे हिंदू त्योहारों पर मांस की खरीब-फरोख्त पर रोक भी शामिल था. इस बदलाव के विरोध में कश्मीर में कई सामाजिक और राजनीतिक संगठन उभरकर सामने आए, जिनमें से सरकारी कर्मचारियों का एक संगठन ‘Muslim Employees Federation’ भी शामिल हुआ. राज्यपाल की ओर से प्रदर्शन को लेकर 9 कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई. इसके अलावा कई युवा कार्यकर्ताओं, राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की गिरफ्तारी ने घाटी में खासा असंतोष बढ़ा दिया.

प्रदर्शन के बीच सितंबर 1986 में, कई समूह, जिनमें से कुछ धार्मिक संगठन भी शामिल थे, ने मिलकर मौलवी अब्बास अंसारी की अगुवाई में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) के गठन की घोषणा की. इसका सबसे बड़ा घटक जमात-ए-इस्लामी (Jel) था, जो इन गुटों में अकेला ऐसा संगठन था जिसके पास संगठनात्मक संरचना और रूपरेखा थी, जिससे वह इस नए संगठन के मुख्य आधार के रूप में उभरने में कामयाब रहा.

1987 के चुनाव में तब क्या हुआ?

मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) की लोकप्रियता लगातार बढ़ती चली जा रही थी. फ्रंट की लोकप्रियता से केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार भी चिंतित हो गई. केंद्र ने बदले हालात में फारूक अब्दुल्ला के साथ संबंध सुधारने का फैसला किया. राज्य से राज्यपाल शासन खत्म कर दिया गया. ‘राजीव-फारूक समझौते’ के तहत फारूक अब्दुल्ला नवंबर 1986 में कांग्रेस के समर्थन से जम्मू-कश्मीर में फिर से सत्ता में लौटे और अपनी सरकार बनाई.

घाटी में इस बदलाव से कोई खास फायदा नहीं हुआ. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट जो अब धार्मिक संगठन से निकलते हुए खुद को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में तैयार कर लिया, ने वहां के आम लोगों की भावनाओं का फायदा उठाया. जमात-ए-इस्लामी समेत कई सत्ता-विरोधी गुट मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के रूप में साथ आ गए. और इस फ्रंट की ओर से सांप्रदायिक आधार पर मुस्लिम भावनाओं को भड़काने के प्रयास किया गया.

घाटी में भारी वोटिंग, फिर क्या हुआ

राज्य में विधानसभा चुनावों की तारीखों के ऐलान के बाद मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट ने भी चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया, हालांकि इस फैसले को लेकर फ्रंट में भी कुछ लोग विरोध में थे. फ्रंट का चुनाव चिन्ह ‘कलम और स्याही की बोतल’ था (जिसे बाद में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपना लिया). इसके घोषणापत्र में शिमला समझौते के अनुसार कश्मीर विवाद का समाधान शामिल था. फ्रंट का नारा था कि विधानसभा में कुरान के कानून को लागू किया जाए.

जम्मू-कश्मीर में 23 मार्च 1987 को विधानसभा चुनाव कराया गया. चुनाव में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच गठबंधन हुआ और सभी 76 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे जबकि एमयूएफ 44 सीटों पर चुनाव लड़ा. चुनाव में बड़ी संख्या में लोगों ने बदलाव को ध्यान में रखते हुए मतदान किया. पहली बार कश्मीर में 80% वोटिंग हुई थी.

फ्रंट के उम्मीदवारों में से मोहम्मद यूसुफ शाह भी शामिल थे, जो एक धार्मिक उपदेशक हुआ करते थे, और शुक्रवार को उपदेश देते थे. साथ ही श्रीनगर के सिविल सचिवालय के बाहर एक मस्जिद में नमाज करवाया करते थे. उनके चुनाव प्रबंधक मोहम्मद यासीन मलिक थे और उनके मतदान एजेंट एजाज अहमद डार, इश्फाक मजीद और अन्य थे.

चुनाव में क्यों लगे धांधली के आरोप?

चुनाव में भारी मतदान और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के कई उम्मीदवारों को लेकर घाटी के लोगों में खासी सहानुभूति देखी जा रही थी, हालांकि इस वजह से दिल्ली की कांग्रेस सरकार और श्रीनगर में उसकी सहयोगी नेशनल कॉन्फ्रेंस परेशान हो गई.

चुनाव के बाद कई दिनों तक नतीजे घोषित नहीं किए गए. कई दिनों तक इसे रोके रखा गया. जब परिणाम घोषित किया गया, तो फ्रंट को करारा झटका लगा. उसके 44 उम्मीदवारों में से सिर्फ 4 उम्मीदवार (सैयद अली शाह गिलानी, सईद अहमद शाह (अलगाववादी नेता शब्बीर शाह के भाई), अब्दुल रजाक और गिलाम नबी सुमजी) ही चुनाव जीत सके. गठबंधन को 62 सीटों पर जीत मिली थी. बीजेपी को भी 2 सीटों पर जीत मिली थी.

हालांकि परिणाम आने के बाद राज्य में व्यापक रूप से यह माना जाता रहा कि दिल्ली और श्रीनगर दोनों जगहों की सरकारों ने एनसी-कांग्रेस को सत्ता में बनाए रखने के लिए चुनावी परिणामों में धांधली की साजिश रची गई थी. खास बात यह है कि कई पक्षों की ओर से चुनाव परिणाम में धांधली के आरोपों की कभी कोई जांच भी नहीं की गई.

इसी चुनाव से निकला खूंखार आतंकी सलाहुद्दीन

चुनाव परिणाम के बाद जम्मू-कश्मीर में एक बार फिर एनसी-कांग्रेस गठबंधन सत्ता में लौटी तो उसने अपने प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों को ही नहीं बल्कि उनके समर्थकों को भी जेल में डालना शुरू कर दिया. मोहम्मद यूसुफ शाह, उनके सहयोगी यासीन मलिक और एजाज डार तथा अन्य उम्मीदवारों को जेल में डाल दिया गया. कहा जाता है कि उन्हें जेल में प्रताड़ित भी किया गया. दावा किया जाता है कि कई उम्मीदवारों को जेल में पीटा भी गया.

चुनाव में अमीरा कदल से शिकस्त का सामना करने वाले यूसुफ शाह ने अपना नाम बदल लिया और सैयद सलाहुद्दीन रख लिया. आगे चलकर आतंकी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के प्रमुख बन गया. सलाहुद्दीन अंतरराष्ट्रीय स्तर का कुख्यात आतंकी बना हुआ है. इसी तरह कुछ दिन बाद यासीन मलिक को भी रिहा कर दिया गया तो उसने पार्टी छोड़ दी.

1987 के बाद घाटी से गायब हो गई शांति

बाद में वह पाकिस्तान चला गया और बाद में आतंकवादी संगठन जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) का प्रमुख बन गया. इसी तरह एजाज डार ने भी हथियार उठा लिया और तत्कालीन डीआईजी अली मोहम्मद वटाली को उनके आवास पर मार दिया.

साल 1987 का विधानसभा चुनाव कश्मीर के इतिहास के लिए बहुत ही बदलाव वाला साबित हुआ. इसी चुनाव के दौर में चरमपंथी संगठन घाटी में हावी होने लगा. अलगाववादी ताकतें अपना सिर उठाने लगीं. सैयद सलाहुद्दीन और यासीन मलिक जैसे खूंखार आतंकी इसी चुनाव के दौर से निकले. अगले कुछ सालों में यहां पर अलगाववादी ताकतें इस कदर ताकतवर हो गईं कि अगले 3 दशक यह क्षेत्र हिंसा की आग में झुलसता रहा. इस दौरान बड़ी संख्या में बेगुनाह लोगों की जान भी गई. बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित को अपना घर बार छोड़ना पड़ा.

2008 में चुनाव बाद बना गठबंधन

नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने 2008 में विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ा, लेकिन गठबंधन सरकार बनाने के लिए दोनों एक साथ आ गए. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 28 सीटें जीतीं तो पीडीपी को 21 सीटें मिली जबकि कांग्रेस ने 17 सीटें जीती थीं. गठबंधन के तहत उमर पहली बार मुख्यमंत्री बने. दोनों दलों ने 2008 से 2014 तक जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार चलाई. यही नहीं साल 2009 में कांग्रेस और एनसी ने गठबंधन के तहत लोकसभा चुनाव लड़ा था. एनसी यूपीए का हिस्सा बनी और फारूक अब्दुल्ला कैबिनेट मंत्री बनाए गए.

1987 की यह घटना नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए आज भी परेशानी का सबब बना हुआ है. पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्ट (पीडीपी) से लेकर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस और बीजेपी जैसे दल बार-बार इस घटना को उठाते रहे हैं. विपक्षी दलों का आरोप है कि चुनाव से पहले हुए इस गठबंधन की वजह से ही कश्मीर क्षेत्र में उग्रवाद पनपा और घाटी में खूब खराबा शुरू हो गया.

अब एक बार फि जम्मू-कश्मीर में चुनाव से पहले कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच चुनावी गठबंधन हुआ है. चुनाव में गठबंधन के तहत नेशनल कॉन्फ्रेंस 50 सीटों पर तो कांग्रेस 32 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने जा रही है. जबकि 6 सीटों पर दोनों दलों के बीच दोस्ताना मुकाबला होगा.